दलित न्‍यूज़

कहानी पिछड़ी जाति के पुजारी की, जिसने पूजा करने के लिए लड़ी लड़ाई

यहां जमीन, आसमान की क्या बात कहूं मेरे देश में तो भगवान भी जाति के आधार पर बांट दिए गए हैं. ईश्वर एक है के पथ पर चलने वाले भारत में अक्सर जब मंदिर में पूजा करने के हक की बात आती है, तो एक विशेष वर्ग को ही स्थान दिया जाता है. हालांकि देश में एक दौर वो भी था जब मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत भी कुछ खास वर्ग को ही थी, कुछ लोगों का मंदिर परिसर से कोसों दूर तक प्रवेश की मनाही थी.

खासकर दलित, अनुसूचित जाति के लोगों को मंदिर से दूर रखा जाता था. कुछ जगहों पर हालात ऐसे थे कि अगर कोई दलित वर्ग (Dalit Community) का इंसान मंदिर परिसर में प्रवेश कर जाए तो वहां पूजा-पाठ करके शुद्धिकरण किया जाता था. वक्त के साथ बहुत कुछ बदला है, लेकिन कुछ धारणाएं अब भी वहीं की वहीं हैं. मंदिर में पूजा कराने की अनुमति कुछ ही लोगों की होती है.

ईश्वर और पूजा के लिए लड़ाई
लेकिन पिछड़ी जाति के एक शख्स ने इसके खिलाफ जंग छेड़ी है और इसे जीतने में कामयाब भी हुए हैं. ये कहानी है उस भारतीय की, जिसने ईश्वर और पूजा के लिए अपने अधिकार की लड़ाई लड़ी. तमिलनाडु के मदुरै (Madurai of Tamil Nadu) में रहने वाले टी मारचामी (T Marchami) की. मंदिर में पूजा करने का हक, आसान शब्दों में कहा जाए तो मंदिर में पुजारी बनने के लिए मारीचामी को काफी संघर्ष करना पड़ा. आइए जानते हैं इनकी कहानी…

2018 में बनें मंदिर के पुजारी

बीबीसी से बातचीत करते हुए मारीचामी ने बताया कि वो बचपन से ही पूजा-पाठ करने में रूचि रखते. बड़े होकर उन्होंने इस बात का फैसला लिया कि वो मंदिर में पुजारी बनेंगे. उन्हें उस वक्त ये बात बिल्कुल नहीं पता था कि पिछड़े वर्ग से आने के कारण उन्हें पुजारी बनने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ेगा.

2006 में तमिलनाडु सरकार द्वारा एक प्रशिक्षण शुरू किया गया, जिससे उन्हें एक नई ऊर्जा मिली. इस प्रशिक्षण के तहत राज्य में रहने वाले पिछड़े समाज के लोग पुजारी की ट्रेनिंग ले सकते हैं और पूजा-पाठ की तमाम विधियों को सीख सकते हैं. इस प्रशिक्षण के लिए मारीचामी ने आवेदन किया.

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पुजारी की ट्रेनिंग के बाद मिली खुशी
पुजारी का प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद मारीचामी को एक खुशी का एहसास हुआ. उनके समुदाय के लोगों को एक आशा की किरण मिली की अब सिर्फ एक विशेष वर्ग के पुजारी ही नहीं होंगे. अपनी बातचीत में मारीचामी कहते हैं कि वर्तमान में वो मंदिर में भगवान को भोग लगाने, पूजा करने समेत सभी वो काम करते हैं जो उन्होंने कभी सपने में सोचे थे.

ट्रेनिंग में आई बड़ी मुश्किलें

मारीचामी बताते हैं कि जातीय भेदभाव होने के कारण शुरुआत में उन्हें प्रशिक्षण लेने में भी काफी परेशानियां हुईं थी. प्रशिक्षण कैंप में उनके साथ कई पिछड़े वर्ग के लोग थे, जो दूर-दराज के क्षेत्रों से आए थे. बड़ी मुश्किलों से उन्होंने अपनी पुजारी बनने की ट्रेनिंग पूरी. इस दौरान जातिगत टिप्पड़ी, हिंसा जैसी चीजों का भी उन्हें सामना करना पड़ा.

ब्राह्मण ने दर्ज कराया मुकदमा
प्रशिक्षण पूरा करने और पुजारी की नियुक्ति होने के बाद कुछ ब्राह्मणों ने मारीचामी पर मुकदमा दर्ज करवाया, जिसके कारण राज्य के लगभग 200 पिछड़े वर्ग लोगों के ट्रेनिंग सर्टिफिकेट पर मुहर नहीं लग पाई. मारीचामी कहते हैं कि मुकदमे को झेलने के कारण उनके जीवन के 13 साल बर्बाद हो गए. हालांकि अब वो पूरी तरह से भगवान, श्रद्धा और भक्ति के रंग में रंगे हुए हैं.

वक्त के साथ चीजें बदलती हैं. अब उनके साथ कोई जातिगत भेदभाव नहीं होता है. मंदिर में जो सम्मान पुजारी को मिलना चाहिए वो उन्हें भी मिलता है. वो हते हैं कि इस संघर्ष में उनके जीवन का एक लंबा समय बीता है, लेकिन वो अपने समुदाय के लिए एक नई उम्मीद लेकर आए हैं कि भगवान, पूजा और श्रद्धा पर किसी एक वर्ग का अधिकार नहीं है भगवान एक हैं और वो सबके हैं.

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