उनसे कह दो कि डरे नहीं है हम… हां, हारे हैं जरूर मगर मरे नहीं हैं हम

मगर मरे नहीं हैं हम।

उनसे कह दो कि डरे नहीं है हम,
हारे हैं जरूर मगर मरे नहीं हैं हम।

बहुत जुनून है मुझमें नाइंसाफी के खिलाफ,
सर फिरा है मगर सरफिरे नहीं हैं हम।

बहुत ऊंचा पहाड़ है, है फ़तह बहुत मुश्किल,
अभी से हार क्यों माने अगर चढ़े नहीं हैं हम।

वर्ण/जाति के बल पर उच्चता न दिखाओ,
हमारी जंग जारी है अभी ठहरे नहीं है हम।

द्रोणाचार्य अब अंगूठा नहीं फांसी मांगते हैं,
एकलव्य के वारिस हैं पर भोले नहीं हैं हम।

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दो कौड़ी के दाम से मेरा जमीर मत खरीदो,
अमानत में खयानत कर बिके नहीं हैं हम।

एक रोहित की मौत से हमे खामोश मत समझो,
अब हजार रोहित निखरेंगे, बिखरे नहीं हैं हम।

जम्हूरियत में तानाशाही की चोट ठीक नहीं,
कल भी इंकलाबी थे, अभी सुधरे नहीं हैं हम।

उनसे कह दो कि डरे नहीं है हम,
हाँ, हारे हैं जरूर मगर मरे नहीं हैं हम।

– सूरज कुमार बौद्ध (Suraj Kumar Bauddh)

झाड़ू जलाते हुए, कलम उठाते हुए, हम शासक बनने की ओर अग्रसित हैं… पढ़ें, सूरज कुमार बौद्ध (Suraj Kumar Bauddh) की कविता

 

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