ओमप्रकाश वाल्‍मीकि की वह 2 कविताएं जो ‘दलितों की कहानी’ सबको चिल्‍लाकर बताती हैं… पढ़ें

दलित साहित्‍य (Dalit Sahitya) की पहचान ओमप्रकाश वाल्‍मीकि (Omprakash Valmiki) के बारे में कौन नहीं जानता. ओमप्रकाश वाल्मीकि और दलित साहित्य एक दूसरे के पर्याय हैं. हर साहित्‍य प्रेमी उनकी रचनाओं से प्रेम करता है. उनकी हर रचना दलित समाज के सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन एवं उच्‍च जातियों द्वारा र्दुव्‍यवहार की कहानी चिल्‍ला-चिल्‍लाकर सर्वसमाज के सामने बहुत कुछ कहती है.

कुछ ऐसी ही उनकी दो मौज़ू कविताएं ‘ठाकुर का कुआँ’ और ‘वह मैं हूं’ समाज के सामने दलितों के हालातों को बयां करती हैं.. आइये पढ़ते हैं उन्‍हें…

ठाकुर का कुआँ…

चूल्‍हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का

भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का

बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर हथेली अपनी
फसल ठाकुर की

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कुआँ ठाकुर का
पानी ठाकुर का
खेत-खलिहान ठाकुर के
गली-मुहल्‍ले ठाकुर के
फिर अपना क्‍या?
गांव?
शहर?
देश?

वह मैं हूँ…

मुँह-अँधेरे बुहारी गई सड़क में
जो चमक है–
वह मैं हूँ !

कुशल हाथों से तराशे
खिलौने देखकर
पुलकित होते हैं बच्चे
बच्चे के चेहरे पर जो पुलक है–
वह मैं हूँ !

खेत की माटी में
उगते अन्न की ख़ुशबू–
मैं हूँ !

जिसे झाड़-पोंछकर भेज देते हैं वे
उनके घरों में
भूलकर अपने घरों के
भूख से बिलबिलाते बच्चों का रुदन
रुदन में जो भूख है–
वह मैं हूँ !

प्रताड़ित-शोषित जनों के
क्षत-विक्षत चेहरों पर
घावों की तरह चिपके हैं
सन्ताप भरे दिन
उन चेहरों में शेष बची हैं
जो उम्मीदें अभी —
वह मैं हूँ !

पेड़ों में नदी का जल
धूप-हवा में
श्रमिक-शोणित गंध
बाढ़ में बह गई झोंपड़ी का दर्द
सूखे में दरकती धरती का बाँझपन
वह मैं हूँ

सिर्फ मैं हूँ !!!

dalitawaaz

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