अंग्रेजों से स्वतंत्रता पाने के लिए ‘आज़ादी’ एक विचार था और उस विचार पर कई सारे दृष्टिकोण एक साथ काम कर रहे थे. यदि हम बैठकर उन विचारों का अध्ययन करें तो देखते हैं कि कहीं न कहीं आज़ादी के कारणों में वह सब सम्मिलित हैं. दलित समाज (Dalit Samaj) हजारों वर्षों से गुलामी की दलदल में धसा पड़ा है. इसे इस दलदल से बाहर निकालने की कोशिश संयुक्त रूप में कभी नहीं की गई.
दलितों के लिए मध्यकालीन सन्तों, गुरुओं जैसे कबीर, गुरु नानक देव, रविदास आदि ने शब्द युद्ध लड़ा. समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई, लेकिन यह लड़ाई प्रतीकात्मक बनी रही. सही मायनों में दलितों की ‘राजनैतिक चेतना’ ने ही दलित विषय की गम्भीरता को समझा, लेकिन दलितों के पास सच्चे नेता की कमी लम्बे समय से बनी हुई है.
दलित समाज में वर्तमान समय में सही नेतृत्व की कमी है. नए विचारों की कमी है. केवल जागरूकता के नाम पर साहित्यिक सेमिनारों का आयोजन पर्याप्त नहीं है. दलितों को संगठित होने की बात बाबा साहब डॉ. बीआर आंबेडकर कह गए हैं, क्योंकि दलितों का एकजुट होना ही इनकी जीत है. मौका परस्तों को, दलित नेतृत्व में आगे ना आने देना आज सबसे बड़ी जरूरत है.
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आज की लड़ाई जीतने के लिए दलितों को एक नए औज़ार की जरूरत है. एक ऐसे विचार की जरूरत है जो एक नया और ताकतवर हथियार खड़ा कर सके. जो दलितों को इस गुलाम मानसिकता से बाहर निकाल सकने में कामयाब हो सके.
एडवोकेट एस. एल विरदी, डॉ आंबेडकर (Dr. BR Ambedkar) के बताए रास्तों को दलित मुक्ति का रास्ता बताते है. अपने एक लेख में बाबा साहब की कही बातों को आसान शब्दों में समझाते हुए लिखतें हैं:
1. समाज में सभी व्यक्तियों को शिक्षा प्राप्ति और अपनी रुचि अनुसार रोजगार चुनने की आज़ादी होनी चाहिए.
2. समाज में तरक्की के लिए सभी के लिए समान अवसर और साधन उपलब्ध होने चाहिए.
3. समाज में यदि कोई व्यक्ति मुकाबले की दौड़ में किसी कारण से पीछे रह जाता है तो भी वह खुद से आगे निकलने वालों की घृणा का पात्र नहीं बनना चाहिए, बल्कि उसके साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार होना चाहिए.
4. समाज में किसी भी व्यक्ति को रोजगार परिवर्तन की आजादी होनी चाहिए. पैतृक कार्य के लिए वह बाध्य ना किया जाए.
5. समाजिक या धार्मिक आधार पर किसी के साथ भी भेदभाव नहीं होना चाहिए.
6. समाज में विवाह के लिए जन्म, जात, वर्ण की पाबंदी नहीं होनी चाहिए.
इन सभी बातों में सबसे महत्वपूर्ण जो आख़री नुक़्ता है, वह ही दलित मुक्ति का सबसे अहम उत्तर बन सकता है. अफसोस के आज देश डिजिटल होने की बात करता है, मगर हजारों वर्षों से चली आ रहे जातीय समीकरणों को बदलने के लिए झिझकता दिखाई देता है. पढ़-लिखकर नौकरी कर रहे बच्चों के दिमाग में जातिवाद का ज़हर धीरे-धीरे इंजेक्ट किया जाता है. यह बेहद दुखद है, पर सत्य है. समाजिक नियमों को बदलने का हमारे यहां अधिक चलन नहीं रहा है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जैसे एक जगह अधिक देर तक खड़े पानी में बदबू आने लगती है, बिल्कुल उसी तरह कुप्रथाएं भी वातावरण को दूषित करती हैं. उनका बदलाव ही जीवन की नियति है.
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जहां इस विषय को लेकर निराशा होती है, वहीं सकारात्मक व सही सोच वाले समझदार लोग भी समाज के हर वर्ग में पाए जाते हैं. उनसे प्रेरणा पाकर ही जातिवाद में समय- समय पर सेंध लगती रही है. अनेक युवा माता-पिता के खिलाफ जाकर भी विवाह करते हैं, जहां कई बार बाद में आशीर्वाद दे दिया जाता है और कई बार ऑनर किलिंग की सूली चढ़ा दिया जाता है.
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सही मायनों में समाजिक धारणाओं को बदलने के लिए पढ़े-लिखे युवाओं का संगठित होना और विवाह की नवीन पंरपरा आरंभ करना ही दलित मुक्ति का सफल क़दम होगा.
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लेखक बलविंदर कौर नन्दनी दलित साहित्य पर शोधकर्ता (दिल्ली विश्वविद्यालय) व स्वतंत्र पत्रकार हैं…
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं.)
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