ब्लॉग- डॉ. निशा सिंह
स्वतंत्रता के बाद जो लेखन के क्षेत्र में विमर्श प्रारंभ हुआ, उसने नब्बे के दशक तक आते-आते पूरी रफ्तार पकड़ ली. राजनीति के क्षेत्र में दलित विमर्श या आंदोलन भले भटक गया हो, लेकिन लेखन के क्षेत्र में दलित विमर्श पूरी तरह से अम्बेकरवादी हैं. भारतीय राजनीति में 1990 का दशक सामाजिक न्याय और सामाजिक परिवर्तन का दशक माना जाएगा, क्योंकि इसी दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुईं और दलित-पिछड़ी जातियों को शासन-प्रशासन में भागीदारी हासिल हुई . इसके बाद दलित विमर्श ने अपना व्यापक रूख अखतियार कर लिया.
दलित विमर्श 21 वीं सदी में जाति, भाषा, धर्म, लिंग, वर्ण, राष्ट्र आदि की सीमा को लांघकर अन्तरराष्ट्रीय स्तर का विमर्श बन गया है. ‘दलित’ शब्द का प्रयोग केवल हाशिए के लोगों को समान भाव से पुकारने या देखने के लिए ही नहीं हुआ है, बल्कि यह शब्द क्रांति के प्रतीक बोधक रूप में प्रयुक्त हुआ.
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दलित शब्द, दलित लेखन तथा दलित विमर्श को ओम प्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में इस प्रकार समझा जा सकता है कि “दलित शब्द दबाए गए, शोषित, पीडि़त, प्रताडि़त के अर्थों के साथ जब साहित्य से जुड़ता है तो विरोध और नकार की ओर संकेत करता हैं. वह नकार या विरोध चाहे व्यवस्था का हो, सामाजिक विसंगतियों या धार्मिक रूढि़यों, आर्थिक विषमताओं का हो या भाषा, प्रान्त के अलगाव का हो या साहित्यिक परम्पराओं, मानदंडों या सौन्दर्यशास्त्र का हो. दलित साहित्य नकार का साहित्य है, जो संघर्ष से उपजा है तथा जिसमें समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का भाव है और वर्ण व्यवस्था से उपजे जातिवाद का विरोध है.
दलित विमर्श एक सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन है, जो इस वर्ग के लोगों में अपने अधिकारों के प्रति अपने होने का अहसास कराने के लिए अपने अन्दर आत्मसम्मान का भाव जाग्रत करता है. दलित विमर्श दलित समाज में चेतना पैदा करने वाला लेखन है. चेतना से तात्पर्य है कि “दलित की व्यथा, पीड़ा, शोषण का विवरण देना या बखान करना ही दलित चेतना नहीं या दलित पीड़ा का भावुक और अश्रु-विगलित वर्णन जो मौलिक चेतना से विहीन हो. चेतना का सीधा संबंध दृष्टि से होता है जो दलितों की सांस्कृतिक ऐतिहासिक, सामाजिक भूमिका की छवि के तिलिस्म को तोड़ती है. यह है दलित चेतना.”
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आगे ओमप्रकाश वाल्मीकि चेतना की विचारधारा को स्पष्ट करते हैं कि “चेतना का सीधा संबंध आंबेडकर दर्शन से है. वही प्रेरणास्रोत भी हैं. सामाजिक उत्पीड़न, सामन्ती सोच, वर्ण व्यवस्था से उपजी ऊंच-नीच ने दलितों को शताब्दियों से मानसिक गुलामी में जकड़कर रखा हुआ है. उसकी मुक्ति के तमाम रास्ते बन्द थे. इस गुलामी से मुक्त होने का विचार ही दलित चेतना है, जिसे ज्योतिबा फुले और डॉ. आंबेडकर ने दार्शनिक आधार दिया, जिसका केन्द्र बिन्दु यही शोषित सामान्य जन है.
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दलित विमर्श का केन्द्र मनुष्य का भौतिक वास्तविक जीवन है. यहां दलितों के भीगे हुए यथार्थ की अभिव्यक्ति होती है. दलित विमर्शकार या दलित लेखक बाबा साहब की उन पंक्तियों को आज साकार रूप दे रहे हैं, जिनमें दलित विचारकों, चिंतकों और लेखकों को संबोधित करते हुए बाबा साहेब ने कहा था कि हमारे देश में उपेक्षितों और दलितों की बहुत बड़ी दुनिया है. इसे भूलना नहीं चाहिए. उनके दुखों को, उनकी व्यथाओं को पहचानना जरूरी है और अपने साहित्य के द्वारा उनके जीवन को उन्नत करने का प्रयत्न करना चाहिए. इसी में सच्ची मानवता है.
लेखक डॉ. निशा सिंह दिल्ली यूनिवर्सिटी के राम लाल आनंद कॉलेज (साउथ कैंपस) में गेस्ट लेक्चरर हैं…
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं.)
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ओमप्रकाश वाल्मीकि ने दलित शब्द का सही उच्चारण किया है।