झाड़ू जलाते हुए, कलम उठाते हुए, हम शासक बनने की ओर अग्रसित हैं… पढ़ें, सूरज कुमार बौद्ध की कविता

गुलामी की एक शक्ल होती है
बेबसी, लाचारी, मरणासन्न।
गुलाम बनाने वालों से भिन्न
मक्कारी, गद्दारी, घमंड।
हमने गुलामी जरूर सही
मगर मक्कारी को हाथ नहीं लगाया
और तुम अपना घर संवारते रहे,
हमें नीच कहकर पुकारते रहे।

कत्ल करते रहे हमारे महापुरुषों का
साल-दर-साल नहीं हजारों साल।
कैसे सहा होगा हमारे पुरखों ने?
तुम्हारी इस धूर्तता को,
कट्टरता को, बर्बरता को।

तुमने कैद किया हमारी सांसो को,
हमारे छोटे-छोटे सपनों को।
और गुलामी की जंजीरों में कैद कर,
हमारे हाथों में झाड़ू पकड़ाकर,
कमर में झाड़ू बांधकर,
गले में मटका लटकाकर
दासता को हमारा धर्म बताया।

मगर नहीं अब नहीं…
गुलामी की इस शक्ल को
अपने अक्ल से भेदकर
झाड़ू जलाते हुए, कलम उठाते हुए
हम शासक बनने की ओर अग्रसित हैं।
भीम मिशन पर सतत समर्पित हैं।

सूरज कुमार बौद्ध (Suraj Kumar Bauddh)

‘बेकद्र अछूत बहन’: जातिवादी सामाजिक व्‍यवस्‍था पर गहरी चोट करती Suraj Kumar Bauddh की कविता

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