6 मई, यानि आज ही के दिन साल 1922 में में छत्रपति शाहू जी महाराज (Chhatrapati Shahuji Maharaj) का निधन हुआ. शाहू जी महाराज ऐसे शासक थे, जिन्होंने समाजिक बदलाव की दिशा में कई अहम प्रयोग किए और दलितों को उस वक्त उनका हक दिया, जब उनके प्रति भारत (India) का समाज कुप्रथाओं के गहरे अंधकार में डूबा हुआ था. कहें तो शिवाजी महाराज के वंशज और कोल्हापुर के शासक शाहूजी ने सामाजिक परिवर्तन की दिशा में ऐसे प्रयोग किए, जैसे भारत में किसी दूसरे शासक ने शायद ही किए.
छत्रपति शाहू जी महाराज का जन्म साल 1874 में 26 जुलाई को हुआ. उनके बचपन का नाम यशवंत राव (Yeshwantrao) था और महज 3 साल की उम्र में उन्होंने अपनी मां को खो दिया. बाद में शिवाजी चतुर्थ की विधवा रानी आनंदी बाई ने वर्ष 1884 में उन्हें गोद लिया. वे कोल्हापुर राज्य के उत्तराधिकारी घोषित हुए. 2 जुलाई 1994 को वे शासक बने और 28 साल तक उनका शासन उनके निधन तक चला.
जब भारत में शुद्रों को लेकर हर विचार मनुस्मृति के हिसाब से घृणास्पद धारणाओं पर टिका हुआ था, तब शाहू जी महाराज ने दलितों के लिए एक अहम कदम उठाया. उन्होंने अपनी रियासत में उनके लिए शिक्षा एवं नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण (The First Reservations In India) लागू किया.
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उन्होंने यह प्रयोग साल 1902 में किया. आगे चलकर उनका यही प्रयोग आजाद भारत के लिए प्रेरक बना और संविधान (Constitution of India) के तहत जरूरी उपायों में इसे शामिल किया गया. यही वजह थी कि भारत के लाखों-करोड़ों दलित परिवारों की जिंदगी में एक बड़ा सामाजिक और आर्थिक बदलाव आया.
शाहूजी महाराज ने अपने शासनकाल में अविस्मरणीय सामाजिक सुधार किए, विशेषकर ब्राह्म्णवादी वर्चस्व को चुनौती देने जैसे. यह उस वक्त अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम था. अपनी रियासत में शिक्षा एवं नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण के उनके फैसले का महाराष्ट्र के ब्राह्मणों ने तीखा विरोध किया. इस तरह यह आधुनिक भारत में जाति आधारित आरक्षण की शुरुआत थी.
केवल यही नहीं, शाहू जी महाराज ने साल 1917 में बलूतदारी प्रथा भी खत्म की. इसके अंतर्गत शूद्रों (Shudra) को थोड़ी सी ज़मीन दे दी जाती और उसकी एवज में उसके पूरे परिवार से गांव के लिए मुफ्त सेवाएं ली जातीं.
शाहू जी ने कानून बनाकर साल 1918 में वतनदारी प्रथा का भी अंत किया. उन्होंने भूमि सुधार लागू कर शुद्रों को भू-स्वामी बनने का हक़ दिलवाया. इस आदेश से उनकी आर्थिक गुलामी काफी हद तक दूर हो गई थी.
शाहू जी महाराज ज्योतिबा फुले से गहरे प्रभावित थे. शाहू जी महाराज ने डॉ. बीआर आंबेडकर (Dr. BR Ambedkar) की प्रतिभा और उनके महत्व को समय रहते पहचान लिया. उन्होंने साल 1920 में मनमाड की एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा था- “मुझे लगता है कि डॉ.आंबेडकर के रूप में दलितों को उनका मुक्तिदाता मिल गया है. मुझे उम्मीद है वो दलितों की गुलामी की बेड़ियां काट डालेंगे.”
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एक राजा होते हुए भी समाज के दलित और शोषित वर्ग से हमेशा निकटता बनाए रखी.
केवल यही नहीं, उन्होंने शोषित और दलित (Dalit) वर्ग के बच्चों के लिए मुफ्त में शिक्षा की प्रक्रिया शुरू की. साथ ही गरीब छात्रों के लिये छात्रावास की शुरुआत की. बाहरी छात्रों के लिए व्यवस्था करने के आदेश भी उन्होंने दिए.
शाहू जी महाराज का अंदाज़ बहुत अलग था. वे कई बार जातिवाद पर सीधे वार करते. कभी प्यार से समझाने की कोशिश करते तो कई बार मज़ाक-मज़ाक में अपनी बात कह जाते थे.
साल 1920 में मृत्यु से दो साल पहले शाहू जी महाराज ने नागपुर में ‘अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद’ की बैठक में न केवल हिस्सा लिया, बल्कि उन्होंने एक दलित से चाय बनवाकर पी. ऐसा उन्होंने कई मौकों पर किया था.
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