ओमप्रकाश वाल्‍मीकि: ओ, मेरे प्रताड़ित पुरखों, तुम्हारी स्मृतियां, इस बंजर धरती के सीने पर, अभी जिंदा हैं

(Dalit Sahitya : O mere pradadit purkhon om prakash valmiki ki rachna)

ओ, मेरे प्रताड़ित पुरखों,

तुम्हारी स्मृतियां

इस बंजर धरती के सीने पर

अभी जिंदा हैं

अपने हरेपन के साथ

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तुम्हारी पीठ पर

चोट के नीले गहरे निशान

तुम्हारे साहस और धैर्य को

भुला नहीं पाए हैं अभी तक।

सख़्त हाथों पर पड़ी खरोंचें

रिसते लहू के साथ

विरासत में दे गई हैं

ढेर-सी यातनाएं

जो उगानी हैं मुझे इस धरती पर

हरे-नीले-लाल फूलों में।

बस्तियों से खदेड़े गए

ओ, मेरे पुरखों,

तुम चुप रहे उन रातों में

जब तुम्हें प्रेम करना था

आलिंगन में बांधकर,

अपनी पत्नियों को।

तुम तलाशते रहे

मुट्ठी भर चावल

सपने गिरवी रखकर।

ओ, मेरे अज्ञात, अनाम पुरखो

तुम्हारे मूक शब्द

जल रहे हैं

दहकती राख की तरह

राख : जो लगातार कांप रही है

रोष में भरी हुई।

मैं जानना चाहता हूं

तुम्हारी गंध…

तुम्हारे शब्द…

तुम्हारा भय…

जो तमाम हवाओं के बीच भी

जल रहे हैं

दीए की तरह युगों-युगों से!

O mere pradadit purkhon

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