रोहन कजानिया को साहित्य से विशेष रूप से हिंदी दलित साहित्य से प्रेम है और अपनी पटकथाओं (फिल्मों/साहित्य) और कविताओं (हमारा समाज) पर काम कर रहे हैं.
लगातार हो रहीं दलित हत्याओं (Dalit Killings) के विरोध में सोशल मीडिया पर अचानक उठने वाले गुब्बार और फिर उसके एकाएक शांत हो जाने से जाग्रत युवा नाराज़ हैं. सिंघु बॉर्डर (Singhu Border) पर दलित मजदूर लखबीर सिंह (Dalit Lakhbir Singh) और आगरा में पुलिस हिरासत में सफाईकर्मी अरुण वाल्मीकि (Arun Valmiki) की हत्याएं भी हमें समाज में व्याप्त धार्मिक एवं मनुवादी कट्टरता के बारे में बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती हैं. राजनीतिक दलों का अपने-अपने फायदे के लिए ऐसे मुद्दों पर चुनकर बोलना या शांत रहना भी बहुजन युवाओं को काफी अखरता है. इसी से दुखी या प्रेरित होकर एक जाग्रत युवा रोहन कजानिया ‘अछूता’ (Rohan Kajaniya Achuta) ने रचना रची है, जिसका शीर्षक ही उन्होंने ‘अछूता’ रखा है. वह इस कविता के माध्यम से अपनी आवाज़ समाज के सभी कोनों और नेताओं तक पहुंचाना चाहते हैं.. आइये पढ़ते हैं…
देखो शोर हो रहा
फिर कोई ‘अछूता’
कहीं मरा-कुचला
जरूर होगा!
आओ चलो
तुम मैं हम सब
भीड़ लगाएं
चिल्लाएं, चीखें
हैडलाइन बनाएंगे
फिर दलितों के ठेकेदार हमें
रैलियों में ले जाएंगे
आओ रंगीन झंडे पकड़े
कहीं मोमबत्ती जलाएंगे
चलो किसी और के लिखे
नारे भी गाएंगे!
देखो! मैं घूम आया वहां
सेल्फी वीडियो बनाएंगे
अपलोड करके बार-बार
स्टेटस पर लाइक गिनेंगे
लंगर खाएंगे
आस पास घूमेंगे
पिकनिक नहीं ये
प्रायोजित प्रोटेस्टों का फैशन है!
आओ चलो,
कोई दलित मरा है
हम वहां शोक मनाने जाएंगे
देखो शोर हो रहा
फिर कोई ‘अछूता’
कहीं मरा-कुचला
जरूर होगा!
जो व्यस्त हैं या घर बैठे हैं
मौका दिया जाएगा
वो भी तो देशभक्त हैं!
देश के हित में
ट्विटर, व्हाट्सएप,
फ़ेसबुक, टीवी पर
वो हैशटैग चलाएंगे!
डिबेट में गालियां देंगे
बस भड़ास निकालेंगे
कुछ टाइम पास करेंगे
और कॉरपोरेट मीडिया
विज्ञापन का पैसे कमाएंगे
रात हो गई, डिनर हो गया
थके हैशटैग के सभी साथी
एक-एक कर सो गए
और वहाँ
जो मरा था सुबह
वहीं पड़ा है अबतक ‘अछूता’
जिसे अपने ही हैशटैग पर
जीते जी
कुछ कहने का मौका ना मिला था
अंतिम विदा लेने को
राह देखती उसकी चेतना ने
वहीं कहीं बैठकर
बिछड़ते बिलखते बच्चों बीवी
माँ बाप दोस्तों को देख
यही सोचा होगा
कि ये कौन लोग थे?
कैसे लोग थे?
जो ये भीड़ लगाने को
ऐसा शोर मचाने को
सिर्फ मेरे मरने की राह देखते थे
सिर्फ मेरे मरने की राह देखते थे
देखो शोर हो रहा
फिर कोई ‘अछूता’
कहीं मरा-कुचला
जरूर होगा!
– रोहन कजानिया ‘अछूता’ (Rohan Kajaniya Achuta)
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लेखक रोहन कजानिया ‘अछूता’ उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर निवासी हैं और वाल्मीकि समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. 2015 तक एक बीपीओ फर्म में सीनियर अकाउंट्स एग्जीक्यूटिव के रूप में काम किया. बाद में एक अभिनेता के रूप में फिल्मों में संघर्ष करना शुरू किया. फिर एक फ्रीलांस असिस्टेंट साउंड रिकॉर्डिस्ट के रूप में काम करना शुरू किया और बाद में फिल्म इंडस्ट्री में अस्तित्व के लिए प्रोडक्शन कोऑर्डिनेटर के रूप में काम किया. इन्हें साहित्य से विशेष रूप से हिंदी दलित साहित्य (Hindi Dalit Sahitya) से प्रेम है और अपनी पटकथाओं (फिल्मों/साहित्य) और कविताओं (हमारा समाज) पर काम कर रहे हैं.
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