नई दिल्ली/लखनऊ. उत्तर प्रदेश समेत देश के तमाम राज्य इन दिनों कोरोना महामारी से जूझ रहे हैं. एक तरफ कोरोना (Corona Pandemic) है तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनावों (Uttar Pradesh Elections 2022) की तैयारियों में समाजवादी पार्टी (सपा) और कांग्रेस जुट गई है.
दोनों ही पार्टियां दलित वोटरों को लुभाने के लिए अलग-अलग बिसात बिछाने में जुटी हुई हैं. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव बसपा का वोट बैंक रह चुके मुस्लिम-यादव और गैर जाटव दलित वोटरों को सपा के पक्ष में लाने में जुटे हुए हैं.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में यह देखा गया है कि दलित वोटर्स जिन्हें बसपा का वोट बैंक माना जाता है वो वक्त-वक्त पर अन्य पार्टियों पर भरोसा दिखा चुकी है, ऐसे में अखिलेश कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते हैं.
क्या कहते हैं 2012 के आंकड़ें
2012 के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि इस विधानसभा चुनाव में सपा ने बसपा सरकार को उखाड़कर सत्ता हासिल कर ली थी. इस दौर में दलित लोगों का विश्वास मायावती पर से उठता जा रहा था.
इस दौरान अखिलेश ने सियासी दांव खेलते हुए चुनाव प्रचार के दौरान जनता को विश्वास दिलाया कि यदि सपा की दूसरी बार सरकार बनेगी तो गुंडागर्दी खत्म हो जाएगी और ये सफल हुआ.
लोकसभा चुनावों में नहीं खुला बसपा का खाता
सिर्फ विधानसभा चुनाव ही नहीं लोकसभा चुनावों में भी दलित वोटर्स बिखर गए और बीजेपी की सेंधमारी के कारण मायावती की पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया.
2017 में भी दोहराया गया इतिहास
2012 का ये सिलसिला 2017 में भी देखने को मिला. 2017 के चुनावों में सपा ने कांग्रेस के साथ मिलाया. इसके पीछे ये सोच थी कि दलित वोटर्स साथ आ जाएंगे. हालांकि परिणाम इसके उलट हुआ. दलित वोटर्स बीजेपी की ओर खिसक गए और योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बनें.
राजनीतिक विशेषज्ञों का कहना है कि इस बार अखिलेश यादव वोटर्स को लुभाने की कवायद जल्द इसलिए शुरू की क्योंकि लोग कोरोना की स्थितियों को लेकर गुस्से में है.