भारत में दलित राजनीति (Dalit Politics) के सक्रिय होने का श्रेय निसंदेह मान्यवर कांशीराम (Kanshi Ram) को जाता है. वह दलित राजनीति के उत्थान का चेहरा बने. बीएससी पास करने के बाद क्लास वन अधिकारी की जॉब करने वाले मान्यवर कांशीराम स्पष्ट कहते थे, हमें अपने हक के लिए लड़ना होगा… उसके लिए गिड़गिड़ाने से बात नहीं बनेगी.
व्यक्तिगत रूप से सादा जीवन जीने वाले कांशीराम (Kanshi Ram) दलित सशक्तिकरण (Dalit Empowerment) का एक प्रतीक हैं. कांशीराम ने जब अपने आंदोलन की शुरुआत करने की रणनीति बनाई थी तो जानते हैं उनका पहला कदम क्या था? उनका पहला कदम था एक खत लिखना. इसे उन्होंने अपने घरवालों को भेजा. कहते हैं कि इस खत को पढ़ उनके घरवाले अवाक रह गए. पूरे 24 पन्ने के इस खत में उन्होंने लिखा..
1.अब मैं कभी घर नहीं आऊंगा.
2. अपना घर कभी नहीं खरीदूंगा.
3. गरीबों दलितों का घर ही अब मेरा घर होगा.
4. मैं सभी रिश्तेदारों से मुक्त रहूंगाृृ
5. किसी की शादी, जन्मदिन, अंतिम संस्कार में शामिल नहीं होऊंगा.
6. कोई भी नौकरी नहीं करूंगा.
7.जब तक बाबा साहब अंबेडकर का सपना पूरा नहीं हो जाता, चैन से नहीं बैठूंगा.
1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति या डीएस4 की स्थापना करने के बाद उन्होंने लोगों को इतनी एकजुटता से संगठित किया, जिसका प्रमाण हमें 1983 में मिला. मान्यवर ने 1983 में डीएस4 के बैनर तले एक साइकिल रैली का आयोजन किया. इस रैली में उन्होंने अपनी ताकत दिखाई. इस रैली में 3 लाख लोगों ने हिस्सा लिया था. इस रैली के बाद सभी राजनीतिक दलों के कान मानों खड़े हो गए थे.
कांशीराम की जीवनी कांशीराम, द लीडर ऑफ द दलित्स लिखने वाले बद्रीनारायण इस बात का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उस वक्त उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा की मिलीजुली सरकार चल रही थी. अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) राजनीतिक समीकरण को देखते हुए चाहते थे कि कांशीराम राष्ट्रपति का पद संभालें.
वह बताते हैं कि वाजपेयी ने जब कांशीराम के सामने यह बात रखी तो उन्होंने साफ मना कर दिया. इसके पीछे वजह बताई जाती है कि कांशीराम राष्ट्रपति नहीं प्रधानमंत्री बनना चाहते थे, क्योंकि वह यह बात अच्छे से जानते थे कि प्रधानमंत्री पद की एक अलग गरिमा और ताकत है. इसलिए कांशीराम ने राष्ट्रपति से जैसे देश के सर्वोच्च पद को ठुकरा दिया था.