अभी और कितने दिन, इसी तरह गुमसुम रहकर, सदियों का संताप सहना है!- ओमप्रकाश वाल्‍मीकि

Dalit Kavita sadiyon ka santap Om prakash valmiki

ओमप्रकाश वाल्‍मीकि (Om Prakash Valmiki) द्वारा रचित दलित कविता, सदियों का संताप… दोस्‍तों! इस चीख़ को जगाकर पूछो कि अभी और कितने दिनइसी तरह गुमसुम रहकर सदियों का संताप सहना है!

दोस्‍तों!

बिता दिए हमने हज़ारों वर्ष
इस इंतज़ार में
कि भयानक त्रासदी का युग
अधबनी इमारत के मलबे में
दबा दिया जाएगा किसी दिन
ज़हरीले पंजों समेत.

फिर हम सब
एक जगह खड़े होकर
हथेलियों पर उतार सकेंगे
एक-एक सूर्य
जो हमारी रक्‍त-शिराओं में
हज़ारों परमाणु-क्षमताओं की ऊर्जा
समाहित करके
धरती को अभिशाप से मुक्‍त कराएगा !

इसीलिए, हमने अपनी समूची घृणा को
पारदर्शी पत्‍तों में लपेटकर
ठूंठे वृक्ष की नंगी टहनियों पर
टांग दिया है
ताकि आने वाले समय में
ताज़े लहू से महकती सड़कों पर
नंगे पांव दौड़ते
सख़्त चेहरों वाले सांवले बच्‍चे
देख सकें
कर सकें प्‍यार
दुश्‍मनों के बच्‍चों में
अतीत की गहनतम पीड़ा को भूलकर

हमने अपनी उंगलियों के किनारों पर
दुःस्‍वप्‍न की आंच को
असंख्‍य बार सहा है
ताजा चुभी फांस की तरह
और अपने ही घरों में
संकीर्ण पतली गलियों में
कुनमुनाती गंदगी से
टखनों तक सने पांव में
सुना है
दहाड़ती आवाज़ों को
किसी चीख़ की मानिंद
जो हमारे हृदय से
मस्तिष्‍क तक का सफ़र तय करने में
थक कर सो गई है ।.

दोस्‍तों !
इस चीख़ को जगाकर पूछो
कि अभी और कितने दिन
इसी तरह गुमसुम रहकर
सदियों का संताप सहना है !

-ओमप्रकाश वाल्‍मीकि (Om Prakash Valmiki)
(जनवरी, 1989)

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