ब्लॉग- डॉ. निशा सिंह
दलित (Dalit) विमर्श क्या हैं ?दलित विमर्श का क्षेत्र कितना हैं ? इसका अर्थ क्या हैं? आदि सवालों का जवाब दलित चिन्तक कंवल भारती इस प्रकार देते हैं कि दलित विमर्श सिर्फ एक जाति का विमर्श नहीं है, जैसा की आम धारणा हैं कि किसी दलित समस्या को लेकर किया गया विमर्श ही दलित विमर्श हैं.
दलित विमर्श के केन्द्र में दलित समस्या को नहीं नकारा जा सकता. पर यह समस्या एक राष्ट्रीय समस्या के रूप में हैं. इसके केन्द्र में दलित मुक्ति का प्रश्न राष्ट्रीय मुक्ति का प्रश्न है. दलित विमर्श के छोर में वे सारे सवाल हैं, जिनका संबंध भेदभाव से हैं. चाहे यह भेदभाव जाति के आधार पर हो, रंग के आधार पर हो, नस्ल के आधार पर हो, लिंग के आधार पर हो या फिर धर्म के ही आधार पर क्यों न हो.”
दलित विमर्श का आरंभ संसार में उपस्थित सभी प्रकार के भेदभावों को नकारकर मानवता की स्थापना के लिए हुआ हैं. दलित विमर्श सदियों से चली आ रही ब्राह्मणवादी पितृसत्तात्मक व्यवस्था को अस्वीकार कर समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व पर आधारित समाज व्यवस्था में विश्वास करता है.
नवजागरण के दौरान समाज सुधारकों ने जो भी आंदोलन चलाए वे हिन्दु धर्म में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने के लिए तथा इस्लाम व ईसाई मत के प्रभाव को कम कर हिन्दू धर्म को बढ़ाना था. इसके बरक्ष दलित आन्दोलन का “ध्येय न तो हिन्दू धर्म की रक्षा करना था और न ईसाई मत और इस्लाम के प्रभाव को रोकना था. उनका मुख्य ध्येय दलित-मुक्ति था और इसके लिए उनका जोर वर्णव्यवस्था के उन्मूलन पर” रहा है.
महात्मा ज्योतिबा फुले (Mahatma Jyotiba Phule) (1827-1890) नवजागरणकालीन पहले दलित आन्दोलनकर्ता या क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्राह्मणवाद और जाति-प्रथा के खिलाफ विद्रोह के साथ-साथ दलित-पिछड़ी जातियों व महिलाओं की स्वतंत्रता के लिए सामाजिक आन्दोलन प्रारंभ किया. उन्होंने 1873 में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गुलाम-गिरी’ की रचना की.
इनके माध्यम से महात्मा ज्योतिबा फुले ने ब्राह्मणवाद का खंडन करते हुए समाज में जाग्रति पैदा की. इनके समानान्तर अल में नारायण गुरु (1854) जाति-प्रथा के विरुद्ध आंदोलन कर रहे थे. उन्होंने ‘एक जाति, एक धर्म व एक ईश्वर’ की घोषणा करते हुए नारा दिया कि जाति मत पूछो, जाति मत बताओ और जाति के बारे में मत सोचो.” इससे जाति प्रथा अपने आप समाप्त हो जाएगी.
इनके बाद दक्षिण भारत में मद्रास (तमिलनाडु) में जन्मे पेरियार रामास्वामी नायकर (Periyar E V Ramasamy) (1879-1973) ने जातिवाद और ब्राह्मणवाद के खिलाफ आन्दोलन चलाया. ये ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे.
इनका कहना था कि ‘ईश्वर नहीं है, जिन्होंने ईश्वर का आविष्कार किया वह मूर्ख हैं. जिसने ईश्वर का प्रचार किया वह दुष्ट है और जिसने ईश्वर की पूजा की, यह असभ्य हैं.” उत्तर भारत में स्वामी अछुतानंद (1879-1933) ने ‘आदि हिन्दू आन्दोलन’ के माध्यम से जातिवाद और ब्राह्मणवाद का विरोध कर दलित आन्दोलन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया.
इस लेख के दूसरे अध्याय में पढ़ें बाबा साहब डॉ.भीमराव आंबेडकर ने किस आंदोलन से ऊर्जा ग्रहण कर महाड़ आंदोलन शुरू किया…
लेखक डॉ. निशा सिंह दिल्ली यूनिवर्सिटी के राम लाल आनंद कॉलेज (साउथ कैंपस) में गेस्ट लेक्चरर हैं…
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं.)