माता रमाबाई (Mata Ramabai) को शादी के तुरंत शादी के तुरंत समझ में आ गया था कि बाबा साहेब डॉ. बीआर आंबेडकर (Dr. BR Ambedkar) के जीवन का लक्ष्य पिछड़े/शोषित तबकों का उत्थान करना ही है. और यह तभी संभव हो सकता था, जब वे खुद इतने शिक्षित हों कि पूरे देश में शिक्षा की मशाल जला सकें. बाबा साहेब के इस संघर्ष में माता रमाबाई ने अपनी आख़िरी सांस तक उनका साथ दिया.
कहते हैं कि एक सफल और कामयाब पुरुष के पीछे एक स्त्री का हाथ होता है और ‘मातोश्री’ रमाबाई (Mata Ramabai) ने इस कहावत को सच कर दिखलाया था. बाबा साहब की अर्धांगिनी रमाबाई (Ramabai) के ज़िक्र के बगैर बाबासाहेब की सफ़लता की कहानी अधूरी है.
रमाबाई आंबेडकर (Ramabai Ambedkar) का जन्म 07 फ़रवरी 1898 को रत्नागिरी के वणंदगाव में एक बेहद गरीब परिवार में हुआ था. वह पिता भिकु धुत्रे (वलंगकर) व माता रुक्मिणी के साथ वंणदगांव में नदी किनारे महारपुरा बस्ती में रहती थीं. उनकी 3 बहनें और एक भाई शंकर थे.
उनके पिता मछलिओं से भरी हुई टोपलिया बाजार में पहुंचाया करते थे. उन्हें छाती में दर्द की शिकायत थी. रमाबाई बचपन में ही अपनी मां को खो चुकी. बीमारी से उनका निधन हुआ था. माता के जाने का उनके मन पर गहरा आघात हुआ. कुछ वक्त बाद उनके पिता भी चल बसे. वलंगकर चाचा और गोविंदपुरकर मामा इन सब बच्चों को लेकर मुंबई में चले आए और वहां भायखला चाळ में रहने लगे.
सूबेदार रामजी आंबेडकर अपने पुत्र भीमराव आंबेडकर के लिए वधू की तलाश कर रहे थे. वहां उन्हें रमाबाई के बारे में पता चला, वे रमाबाई को देखने गए. रमाबाई उन्हें पसंद आई और उन्होंने अपने पुत्र भीमराव के साथ उनकी शादी कराने का फैसला कर लिखा. विवाह की तारीख तय की गई और अप्रैल 1906 में रमाबाई का विवाह 9 साल की उम्र में बॉम्बे (अब मुंबई) के बायकुला मार्किट में 14 साल के भीमराव आंबेडकर से संपन्न हुआ.
रमाबाई को भीमराव प्यार से ‘रामू’ बुलाते थे और वो उन्हें ‘साहेब’ कहकर पुकारतीं थीं. बाबा साहेब ने भी अपने जीवन में रमाबाई भीमराव आंबेडकर (Ramabai Bhimrao Ambedkar) के योगदान को बहुत महत्वपूर्ण माना. उन्होंने अपनी किताब ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ को रमाबाई को समर्पित करते हुए लिखा, कि उन्हें मामूली-से भीमा से डॉ. आंबेडकर बनाने का श्रेय रमाबाई को जाता है.
हर परिस्थिति में रमाबाई बाबा साहेब का साथ देती रहीं. बाबा साहेब वर्षों अपनी शिक्षा के लिए बाहर रहे और इस समय में लोगों की बातें सुनते हुए भी रमाबाई ने घर को संभाले रखा. जीवन की जद्दोज़हद में उनके और बाबासाहेब के पांच बच्चों में से सिर्फ़ यशवंत ही जीवित रहे. फिर भी रमाबाई ने हिम्मत नहीं हारी, बल्कि वे खुद बाबासाहेब का मनोबल बढ़ाती रहीं. बाबासाहेब के और इस देश के लोगों के प्रति जो समर्पण माता रमाबाई का था, उसे देखते हुए कई लेखकों ने उन्हें ‘त्यागवंती रमाई’ का नाम दिया.
बाबासाहेब की ही तरह उनके जीवन पर भी नाटक, फ़िल्म आदि बने. उनके नाम पर देश के कई संस्थानों के नाम भी रखे गए. उनके ऊपर ‘रमाई,’ ‘त्यागवंती रमामाऊली,’ और ‘प्रिय रामू’ जैसे शीर्षकों से किताबें लिखी गई हैं. पूरे 29 वर्ष तक बाबासाहेब का साथ निभाने के बाद साल 1935 में 27 मई के दिन एक लंबी बीमारी के चलते माता रमाबाई का निधन हो गया.