हरफनमौला, संजीदा और बेहतरीन अभिनेता इरफान खान हम सबके बीच नहीं रहे. उनका जाना हमारे भीतर एक शून्य छोड़ गया. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के इस प्रोडक्ट ने अपनी एक्टिंग से करोड़ों लोगों का दिल जीता और आखिर कैंसर से लड़ते-लड़ते हमें अलविदा कह गए.
इरफान खान की शख्सियत ही कुछ ऐसी थी कि फिल्मफेयर से लेकर तमाम अवॉर्ड्स अपने नाम करने के बावजूद उन्होंने बॉलीवुड के ग्लैमर को कभी खुद पर हावी नहीं होने दिया और शायद यही कारण है कि हिंदुस्तान के सभी तबके को लोग उनके जाने पर ग़मगीन है.
इरफान लगातार पढ़ते-लिखते रहते थे और समाज को समझने की ललक उनके भीतर हमेशा रहती थी. इस तरह उन्होंने अपने भीतर की सामाजिक चेतना को कभी मरने नहीं दिया. उनका मानना था कि देश की सामाजिक व्यवस्था लोगों को आपस में बांटने वाली है और इसे खत्म करना बेहद जरूरी है.
एक किस्सा आपको बताते हैं… बात साल 2014 की है. जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल चल रहा था. इरफान ने भी इसमें शिरकत की थी. उन्हें एक सेशन में चर्चा में भाग लेना था. इसका नाम था आक्रोश. इसमें चर्चा हो रही थी कि आखिर देश में दलितों और पिछड़ी जातियों के भीतर का जो आक्रोश है और राजनीतिक दलों के लिए यह कैसे एक वोट बैंक का हिस्सा है. समाज में पिछड़े वर्ग को कैसे उसका हक़ और जगह दिलवाई जाए.. क्या इनकी आवाज़ को मजबूत करने के लिए कला, साहित्य और फिल्में मददगार साबित हो सकती है. इस विषय पर इरफान बहुत खूब बोले.
इस गंभीर विषय पर अपने विचार उन्होंने अपने चिर-परिचित और बेहद सुलझे हुए अंदाज़ में बयां किए और कहा- सामाजिक व्यवस्था लोगों को आपस में बांटती है. इसकी जड़ें समाज के भीतर बेहद गहराई से जमी हुई हैं, लेकिन इस गैरबराबरी को खत्म करना बेहद जरूरी है. उन्होंने कहा, एक अच्छी बात यह भी है कि इसको लेकर युवा पीढ़ी में चेतना जाग चुकी है. इस संघर्ष का व्यापक रूप भी नजर आने लगा है.
इरफान खान ने कहा था कि फिल्म आक्रोश (सवर्णों द्वारा एक दलित युवक और उसके दोस्तों की हत्या एवं दलितों के दमन के इर्दगिर्द घूमती कहानी) बनने के बाद अब बॉलीवुड में ऐसे विषय पर कई फिल्में बन रही हैं. बॉलीवुड इन विषयों को बेहद संजीदगी से उठा रहा है.
केवल यही नहीं, इरफान ने अपने सामाजिक विवेक का परिचय दिया और ओमप्रकाश वाल्मिकी की कविताएं ‘सदियों का संताप’ और ‘वो मैं हूं’ भी सुनाई थीं.
इरफ़ान ने अपने अभिनय, स्टाइल और डायलॉग डिलीवरी से सबका मन मोह लिया और उनका बोला गया एक डायलॉग “बीहड़ में तो बागी मिलते हैं, डकैत मिलते हैं पार्लियामेंट में” देश की सम्पूर्ण राजनीतिक व्यवस्था पर कटाक्ष कर उसे सही मायने में बयां करता है.
उन्होंने एक और फिल्म – डायलॉग में कहा था कि “डेथ और शिट किसी को, कहीं भी और कभी भी आ सकती है…”
बेहतरीन अनिभय की मिसाल और ऐसे संवेदनशील अभिनेता का इस तरह औचक चले जाना फिल्म जगत व देश के लिए एक अपूर्णीय क्षति है.
उन्हें हमारी तरफ से नमन और श्रद्धांजलि…
ये भी पढ़ें- भारतीय संविधान के प्रावधान, जो दलितों को देते हैं विशेष अधिकार…
(अमित साहनी, वकील एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो जनहित मुद्दों, दलितों एवं वंचित वर्ग के कानूनी अधिकारों को लेकर सक्रिय हैं और दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में दर्जनों जनहित याचिकाएं डाल उनके हक़ की लड़ाई लड़ रहे है. वह अक्सर सामाजिक मुद्दों पर लेख लिखते हैं.)
आप लेखक को उनके ट्विटर हैंडल (https://twitter.com/AdvAmitSahni) और फेसबुक पेज (https://www.facebook.com/AdvAmitSahni/) पर अपनी राय भेज सकते हैं…
Pingback: ओमप्रकाश वाल्मीकि की वह 2 कविताएं जो 'दलितों की कहानी' सबको चिल्लाकर बताती हैं...पढ़ें - दलित आ