“अगर जमीन होगी, तो कोई भी छीन लेगा. पैसा होगा, कोई भी लूट लेगा.. लेकिन अगर पढ़ा-लिखा होगा, तो कोई भी तुझसे कुछ नहीं छीन पाएगा.. अगर अन्याय से जीतना है तो पढ़. पढ़-लिखकर एक ताकतवर इंसान बन. नफ़रत हमें तोड़ती है, प्यार जोड़ता है. हम एक ही मिट्टी के बने हैं, लेकिन जातिवाद (Casteism) ने अलग कर दिया. हम सबको इस सोच से उबरना होगा”.
दलितों पर अत्याचार (Dalit Atrocities) जैसे गंभीर विषय पर बनी दक्षिण भारतीय फिल्म असुरन (South Indian Movie Asuran) के अंतिम सीन में ये बातें टूटे दिल से फ़िल्म के नायक धनुष (Dalit Actor Dhanush) अपने बेटे से कहते हैं. इस फ़िल्म में हिंदुस्तान में दलितों (Dalits) पर होने वाले अत्याचार, छोटी-छोटी बातों पर उनके उत्पीड़न को बारीकी से दिखाया गया है. मसलन, छोटी जात का होने के बावजूद एक लड़की का सिर्फ़ चप्पल पहन लेना गांव के कथित ऊंची जात वालों को इतना चुभता है कि उसके सिर पर वही चप्पल रखवाकर उसे पीटते हुए ले जाया जाता है. अपनी जमीनों को इन कथित ऊंची जात वालों से बचाने को दलितों के आंदोलन करने पर उनके घरों को आग लगाकर लोगों को जिंदा जला दिया जाता है. मसलन, हर पहलू को दक्षिण भारत की इस फ़िल्म ने समाज के सामने बेबाकी से रखा है.
चूंकि अभिनेता धनुष (Dalit Actor Dhanush) खुद अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) से ताल्लुक रखते हैं, सो अपने अभिनय से दलितों (Dalits) का दर्द ईमानदारी से पर्दे पर सबके सामने रख पाए. इस हिम्मत और शानदार अभिनय के लिए आपको सलाम प्रिय धनुष.
पर बॉलीवुड में ये माद्दा नहीं. आर्टिकल 15 सरीखी एक-आध फ़िल्म बनाई तो जाती है, लेकिन उस पर आगे कोई चर्चा नहीं होती, क्योंकि उसे मज़ा सिर्फ नाच-गाने, बकवास स्क्रिप्टों-एक्टिंग और कमर्शियल बने रहने में ही आता है. बस पैसा चाहिए, भले ही पब्लिक को राधे जैसी महाबकवास, अनर्थ फ़िल्म ही क्यों ना परोसनी पड़े.
दरअसल, यहां बात केवल सिनेमा की नहीं, बल्कि जातिवाद जैसे बेहद गंभीर मसले की है. इस देश में रोज ना जाने कितने सामाजिक रूप से पिछड़ों, शोषितों को हर छोटी बात पर उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है. आज भी परिदृश्य कमोबेश वही हैं. कुछ नहीं बदला. इनके ऊंचे पदों पर होने के बावजूद कथित ऊंची जात वालों का नजरिया तक नहीं. क्योंकि वर्ण व्यवस्था में हैं तो सबसे निचले शुद्र, पिछड़े ही ना?
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रोज़ जब ऐसी खबरों, सूचनाओं को पढ़ने पर सीने में आग जलती है. बेहद गुस्सा आता है. मन मसोसता है कि कुछ कर क्यों नहीं पाते. आखिर ये सब कब ख़त्म होगा? लेकिन जवाब आज भी दूर तक मिलता नहीं दिखता. लगता है ऐसा शायद कभी ना हो पाएगा. धनुष का यह कहना कि ‘भले ही हम एक मिट्टी के बने हैं, लेकिन जातिवाद ने हमें अलग कर दिया’, और रोज़ दलित उत्पीड़न की सामने आने वालीं घटनाएं यह बताने-समझाने को पर्याप्त हैं कि सामाजिक समानता आने में ना जाने कितने युग गुज़र जाएंगे. हम कितने जन्म लेने के बाद शायद ही देख पाएंगे कि पृथ्वी पर इंसान रहते हैं ना कि जातियों में बंटे लोग…
लेखक संदीप कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और दलितों से जुड़े विषयों पर सक्रियता से लेखन करते हैं… Twitter पर फॉलो करें @sandeepkumarsun