कहानी जज से वकील बने के. चंद्रू की, जिन पर Surya अभिनित Jai Bhim फ‍िल्‍म बनी है…

judge turned lawyer K Chandru Story On which film Jai Bhim starring Suriya is made

Jai Bhim Movie : Amazon Prime Video ने अपनी बहुप्रतीक्षित फि‍ल्‍म ‘जय भीम’ (Jai Bhim) का ट्रेलर जारी कर दिया है, जिसे काफी सराहा जा रहा है. 2 नवंबर को प्राइम वीडियो पर तमिल, तेलुगू और हिंदी भाषा में रिलीज होने वाली इस फ‍िल्‍म Jai Bhim को लेकर दर्शक उत्‍साहित हैं. यह मूवी सिनेमाई जगत के आम दर्शकों के अलावा नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूकता लोगों के लिए खासकर रुचि का विषय बनी हुई है और इसके इंतजार में हैं. इस फ‍िल्‍म में सरवनन शिवकुमार (Saravanan Sivakumar), जिन्हें उनके मंचीय नाम सूर्या (Suriya) के नाम से जाना जाता है, मुख्‍य भूमिका में हैं. सूर्या इस फ‍िल्‍म में मद्रास उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश के बाद वकील बने के चंद्रू (K Chandru) का किरदार निभा रहे हैं, जिन्‍होंने 1993 में इरुला जनजाति (Irula Tribe) की एक महिला को रुढि़वादी, जातिवादी समाज एवं व्‍यवस्‍था से न्याय दिलाने के लिए सभी बाधाओं से लड़ाई लड़ी.

आइये जानते हैं रिटायर्ड जज एवं वकील के चंद्रू (Retired judge and lawyer K Chandru) के बारे में…

मार्च 1951 में तमिलनाडु के श्रीरंगम में जन्मे जस्टिस चंद्रू स्कूली दिनों से ही मजबूत समाजवादी विशेषता वाले थे. स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के सदस्य के रूप में युवा के चंद्रू ने अपने कॉलेज में मौजूद अनियमितताओं का बहादुरी से मुकाबला किया और कहा जाता है कि उन्हें सेकंड ईयर में संस्थान से निष्कासित कर दिया गया था.

एक युवा के रूप में सर्वहारा वर्ग के लिए चंद्रू की सहानुभूति इस बात से स्पष्ट थी कि उन्होंने एक लोकप्रिय टायर निर्माण फर्म में श्रमिकों को उनके अधिकार दिलाने के लिए बड़ी रैली की. उनके जोरदार विरोध के चलते उनके कॉलेज प्रबंधन बोर्ड में काफी नाराजगी फैल गई, क्‍योंकि टायर कंपनी के सदस्य इस बोर्ड में शामिल थे.

शायद कमजोर वर्गों के अधिकारों को दिलाने के इस उत्साह ने उन्हें लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए प्रेरित किया. जब उन्होंने 1976 में एक वकील के रूप में नामांकन किया, तो उनके मेंटोर ने उन्‍हें मजदूर वर्ग के सशक्तिकरण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दोहराते हुए काम करने की नसीहत दी. वरिष्‍ठ वकील एनजीआर प्रसाद, जिनके अंडर चंद्रू ने बतौर जूनियर काम किया, कहते हैं ‘चंद्रू ने श्रम कानूनों में विशेष रुचि ली और कई मायनों में वह एक सक्रिय कार्यकर्ता थे. यह उन मुकदमों की संख्या में भी सामने आया, जिन्हें उन्होंने फ्री में लड़ा’.

प्रसाद विशेष रूप से दो मामलों को याद करते हैं, जो चंद्रू की प्रकृति को प्रदर्शित करते हैं: “एक मामले में, उन्होंने बहुत अंत तक लड़ाई लड़ी और यह सुनिश्चित किया कि शहर के एक प्रसिद्ध कॉलेज के पास से झुग्गी-झोपड़ी वालों को बेदखल न किया जाए. वह इस राय पर दृढ़ थे कि किसी भी विकास में गरीबों को समायोजित करना चाहिए. वहीं, जब जस्टिस इस्माइल आयोग जेलों में होने वाले अत्याचारों की जांच कर रहा था, तो उन्होंने आयोग के समक्ष प्रतिनिधित्व किया.

इसके आगे की बात करें तो के. चंद्रू ने 31 जुलाई, 2006 से 8 मार्च, 2013 तक मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सेवाएं दीं. अपने सात वर्षों से भी कम समय के सेवाकाल में उन्होंने 96,000 से अधिक मामलों का निपटारा किया. इनमें से 1,500 से अधिक मामलों में दिए गए निर्णय कानून पत्रिकाओं में दर्ज किए गए. एक नामित वरिष्ठ वकील के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने श्रम, सेवा, शिक्षा और मानवाधिकारों के मुद्दों में व्यापक काम किया. वह कई मामलों में कई विश्वविद्यालयों के साथ-साथ विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के लिए उपस्थित हुए थे.

अगर बात करें फ‍िल्‍म जय भीम (Jai Bhim Movie) की तो रिपोर्ट्स के अनुसार, यह 1993 में न्यायमूर्ति के चंद्रू द्वारा लड़े गए एक कानूनी मामले से प्रेरित है, जब वह एक वकील थे. फिल्म की कहानी, उस कानूनी लड़ाई पर आधारित है, जिसका नेतृत्व उन्होंने इरुला जनजाति (Scheduled Tribe’s Irula community) की एक महिला को न्‍याय दिलाने के लिए किया था, जिसमें अदालत में भी जाति के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा.

उन्‍होंने एक प्रसिद्ध किताब लिसन टू माई केस (Listen to My Case) भी लिखीं, जिसमें उन 20 महिलाओं की कहानियों को शामिल किया गया है, जिन्‍होंने तमिलनाडु की अदालतों में न्याय के लिए उनकी प्रेरक लड़ाई लड़ीं.

एक साक्षात्‍कार में उन्‍होंने कहा कि ‘मैं दक्षिण आरकोट जिले की महिला नागम्मल के बारे में नहीं भूल सकता. उसके परिवार को कुछ स्थानीय बड़े लोगों द्वारा प्रताड़ित किया गया था और पुलिस के साथ उसका एक भयानक अनुभव था. यह आपातकाल के दौरान था और उसने सभी अधिकारियों को अभ्यावेदन भेजे थे. यह इतना आश्चर्यजनक था कि एक अनपढ़ महिला बिना किसी समर्थन के सर्वोच्च अधिकारियों को याचिका दे सकती थी. दरअसल, उन्होंने एक बार इस बारे में बात की थी कि कैसे उन्होंने ट्रेन से दिल्ली की यात्रा की और तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से मुलाकात की. उनका मामला केंद्र सरकार द्वारा गठित और सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एम अनंतनारायणन की अध्यक्षता में गठित आपातकालीन अतिरिक्त जांच प्राधिकरण के समक्ष आया. मुझे उसके लिए पेश होने का अवसर मिला. हालांकि आयोग ने कुछ मौद्रिक मुआवजे और पुलिस के खिलाफ कार्रवाई की सिफारिश की, बाद में उच्च न्यायालय ने पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्यवाही को रद्द कर दिया. नागम्मल के पर्स में एक पैसा भी नहीं था तब भी वह दिल्ली तक का सफर तय कर चुकी थी. कई दिनों तक वह खाना भी नहीं खाती थी और लगभग दो बैग ले जाती थी, एक में उसकी याचिकाओं की प्रतियां और एक छोटा पीला कपड़े का थैला होता था, जिसे वह किसी को दिखाने से मना कर देती थी. आज भी, नागम्मल जैसी महिला मुझे विशेष रूप से अपनी अडिग ऊर्जा और वापस लड़ने के स्पष्ट दृढ़ संकल्प के कारण आश्चर्यचकित करती है. उस महिला ने मुझे यह अहसास कराया कि जरूरत पड़ने पर महिलाएं किसी भी तरह के अन्याय के खिलाफ खड़ी हो सकती हैं.’

मद्रास उच्च न्यायालय (Madras High Court) के न्यायाधीश के रूप में उनकी उपलब्धियां रहीं…
-वह नहीं चाहते थे कि अदालत में लाल टोपी, चांदी की गदा लि‍ए एक कर्मचारी उनके आने की घोषणा करे – जिसे शक्ति और अधिकार के प्रतीक के रूप में देखा जाता था.
-अपनी कार में लाल बत्ती नहीं चाहते थे.
-एक सब-इंस्पेक्टर रैंक के व्यक्तिगत सुरक्षा गार्ड को उन्‍होंने सरेंडर कर दिया यानि अपनी सेवा से हटवा दिया.
-अदालतों में “माई लॉर्ड” के रूप में संबोधित नहीं किए जाने का आदेश दिया.
-अपने कार्यकाल में 96,000 मामलों का निपटारा किया था- कई जजों ने इस संख्या का ५०% भी नहीं छुआ था.
-सेवानिवृत्ति की सुबह अपनी आधिकारिक कार को सरेंडर कर दिया था और घर वापस जाने के लिए उपनगरीय ट्रेन में यात्रा की.
-उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश, न्यायाधिकरण, आयोग आदि जैसे सेवानिवृत्ति के बाद की कोई भी नौकरी स्वीकार नहीं की.
-एक फाइव स्टार होटल में विदाई और रात का खाना स्वीकार नहीं किया- आखिरी बार किसी न्यायाधीश ने 1929 में विदाई से इनकार कर दिया था.
-मुख्य न्यायाधीश को अपनी संपत्ति घोषित करने वाले पहले न्यायाधीशों में से एक थे. सेवानिवृत्ति के दिन एक बार फिर मुख्य न्यायाधीश को अपनी संपत्ति की घोषणा की.
-उनके आधिकारिक चैंबर के प्रवेश द्वार पर, उन्‍होंने एक नोटिस लगाया था “कोई देवता नहीं है- इसलिए कोई फूल नहीं, कोई भूखा नहीं है- इसलिए कोई फल नहीं, कोई कांप नहीं रहा है- इसलिए कोई शॉल नहीं.

उनके कुछ ऐतिहासिक निर्णय…
-मंदिरों में पुजारी बन सकती हैं महिलाएं;
-जाति की परवाह किए बिना सामूहिक दफन जमीन होनी चाहिए;
-नाटकों के मंचन के लिए पुलिस की अनुमति की आवश्यकता नहीं है;
-मध्याह्न भोजन केंद्रों में समुदाय आधारित आरक्षण होना चाहिए;

दुनिया में हर भारतीय को इस असाधारण व्यक्तित्‍व के. चंद्रू पर गर्व हो सकता है, जिन्‍होंने न्यायपालिका में विश्वास बहाल किया. इसके बाद वकील के तौर में मानवाधिकारवादी के रुप में…

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