ब्लॉग- बलविंदर कौर नन्दनी
भारतीय समाज के भीतर इतिहास द्वारा जात-पात की एक ऐसी व्यवस्था को खड़ा किया गया है, जिसमें मनुष्य अपने जन्म से लेकर मृत्यु तक उलझा हुआ है. मनुष्य के जन्म के साथ उसकी जातीय पहचान तय हो जाती है, जो मृत्यु तक उसके साथ-साथ चलती है. 21वीं सदी के इस वैज्ञानिक युग में रहते हुए भी आज समाज पूरी तरह से वर्ण व्यवस्था से मुक्ति नहीं पा सका है. अख़बारों की सुर्खियां समाज के इस सच को बयान करती रहती हैं, जिससे हम सभी भलीभांति परिचित हैं. बड़े ही आश्चर्य की बात है कि जातपात की हजारों वर्ष पहले बनी कुप्रथाओं को समाज आज भी ज्यों का त्यों निभाता आ रहा है. आखिर इसका कारण क्या है?
क्या मनु द्वारा बनाया जाति आधारित फलसफा इस पर काम कर रहा है या इसके पीछे कारण कुछ और ही है? दलितों का आगमन इतिहास में कब और कैसे हुआ? इसके बारे में बाबा साहब आंबेडकर स्पष्ट करते हुए लिखतें हैं, ”छुआछूत 400 ई. के आसपास किसी समय पैदा हुई और बौद्ध धर्म व ब्राह्मण धर्म के संघर्ष में से पैदा हुई है. इस संघर्ष ने भारत के इतिहास को पूरी तरह से बदल दिया है.”
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दलित विद्वानों के अनुसार वैदिक समय (रामायण काल) तक आते-आते जातीय प्रथा ने समाज में अपनी पकड़ मजबूत कर ली थी. जातीय विभाजन के उदाहरण रामायण की कथाओं में देखे जा सकते हैं. ‘शंबूक’ नाम का पात्र इसका मुख्य उदाहरण है, जिसे केवल इसलिए मृत्युदंड दिया गया, क्योंकि नीची जाति होने के बावजूद वह मुक्ति के लिए तप कर रहा था. ऐसे तथ्य ये सिद्ध करते हैं कि शूद्रों को मुक्ति के लिए सोचने का भी अधिकार प्राप्त नहीं था.
उस समय दलितों को शास्त्र और शस्त्र विद्या सीखने का भी कोई अधिकार हासिल न था. रामायण की तरह महाभारत काल में ऐसी अन्यायपूर्ण घटनाओं का जिक्र मिलता है. ‘एकलव्य’ के अंगूठे की बलि इतिहास में केवल इसलिए ली गई, क्योंकि वह नीची जाति में होते हुए भी अर्जुन से बेहतर धर्नुधर था. इस प्रकार पुराने धर्मग्रंथों और शास्त्रों में शूद्रों को नीचा समझे जाने के प्रमाण मौजूद हैं.
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चतुवर्णीय जाति व्यवस्था द्वारा पूरे समाज को चार वर्णों में बांटा गया है, ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र. शूद्रों का काम केवल बाकी के तीन वर्गों की सेवा करना बताया गया है. शूद्रों के भी आगे चलकर दो वर्ण बन गए. एक शूद्र वह जिनके हाथ का पानी पीया जा सकता था. दूसरे अछूत शूद्र, उनके हाथ का पानी ग्रहण करना वर्जित था. ये वर्जित समाज ही आज दलित कहलाते हैं.
वास्तव में दलित पहचान का मसला उनके शोषण की स्थिति से जुड़ा हुआ है, जिन्हें समझने के लिए एतिहासिक घटनाओं का अध्ययन करना जरूरी है. मनुस्मृति के अनुसार शूद्रों को मनुष्य मानने से भी इनकार किया है. समाज में जीवित रहने के लिए उनके पास कोई अधिकार नहीं था. मनुस्मृति में दर्ज बातों का उल्लेख करते हुए दलित चिंतक डॉ. मनमोहन अपने एक लेख ‘दलित चेतना और भारतीय मिथ/पौराण’ में मनु स्मृति के कुछ उदाहरण पेश करते हैं. उसके कुछ अंश इस प्रकार है-
# यदि कोई शूद्र ब्राह्मण को धर्म उपदेश देने की गुस्ताखी करे तो राजा को खौलता हुआ तेल उसके कानों और मुंह पर उढ़ेल देना चाहिए.
# राजा को चाहिए कि यदि उसे दबा हुआ धन मिले तो उसमें से आधा धन ब्राह्मण देवता के खजाने में जमा कर देना चाहिए.
वास्तव में मनु द्वारा बनाए गए यह नियम आर्यों के भारत आने के बाद की बात है. इससे पहले (आर्यों से पूर्व) समाज के अंदर ऐसे किसी भी नियम का जिक्र नहीं मिलता. अमरनाथ प्रसाद और एम.बी गायजन अपनी पुस्तक ‘दलित लिट्रेचर ए क्रिटिकल एक्सप्लोरेशन’ की भूमिका में लिखते हैं “आर्यों से पहले का भारतीय इतिहास बताता है कि भारत में उच्च शिक्षित जाति पाई जाती थीं. उन लोगों का वर्ण अथवा चमड़ी का रंग अलग था. हमारे पास हमारी जानकार भाषा के अंदर उनके समाजिक जीवन, सभ्यता, रीति रिवाजों के कोई दस्तावेज मौजूद नहीं है. उस काल के आलेख विद्वानों के लिए आज भी रहस्य बने हुए हैं. हम भारतीय संस्कृति के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वह हिंदू धर्म ग्रंथ जो पहले आर्य ग्रंथ कहलाते थे, से पता लग सका है. ये हैं वेद, उपनिषद स्मृतियां, महाकाव्य, पुराण और अन्य हस्तलिखित दस्तावेज. इस प्रकार वह अध्याय हमारे लिए अभी अज्ञात है. वैदिक ग्रंथों के अंदर लिखा है कि जो लोग आर्य नहीं थे उन्हें दास, दासू, पंचम वर्ण, बाद में शूद्र, बहुत नीचे व अछूत कहा जाने लगा.”
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इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दलितों की पहचान हमें आर्यों के हस्तलिखितों से ही पता लगती है. डॉ. आंबेडकर भी इस खो दिए गए या आर्यों द्वारा नष्ट कर दिए गए पूर्व इतिहास के अध्ययन की बात करते हुए एक स्थान पर कहते हैं “मुझे खेद है कि भारत के इतिहास के विद्यार्थियों ने इसके अध्ययन की उपेक्षा की है.” जब कोई कौम अपने इतिहास से परिचित होती है वह अपनी वैचारिक लड़ाई उतनी ही दृढ़ता से लड़ सकती है, यह एक सामान्य बात है .भविष्य एतिहासिक तथ्यों द्वारा निर्मित होता है. दलितों को अपने इतिहास को समझने की आवश्यकता है, ताकि उन्हें अपनी जातीय पहचान छिपाकर ना जीना पड़े.
लेखक बलविंदर कौर नन्दनी दलित साहित्य पर शोधकर्ता (दिल्ली विश्वविद्यालय) व स्वतंत्र पत्रकार हैं…
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं.)