आज के करीब 94 साल पहले संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर ने एक तलाब से दो घूंट पानी पीकर छूआछूत और ब्राह्मणवाद के हजारों साल के कानून को तोड़कर नई चुनौती को जन्म दिया था. 20 मार्च 1927 को महाराष्ट्र के रायगढ़ जिले में महाड़ नामक स्थान था. ये वो दौर था जब भारत एक तरफ अंग्रेजों की गुलामी से लड़ रहा था, तो दूसरी तरफ अछूत, जातिवाद की वो लंबी दीवार थी जिसे तोड़ना नामुमकिन था. उस वक्त नई विचारधारा को जन्म देने के लिए बाबा साहेब ने सैकड़ों अछूत (दलित) कहे जाने वाले लोगों के साथ चावदार तालाब का पानी पिया. इतिहास की किताबों को खंगाला जाए तो पता चलता है कि बाबा साहेब ने दलितों का नेतृत्व करते हुए अंजुली से पानी पिया. इसके बाद सभी ने तालाब से पानी पिया.
इस दौरान डॉ. आंबेडकर ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था कि क्या यहां हम इसलिए आए हैं कि हमें पीने के लिए पानी मयस्सर नहीं होता है? क्या यहां हम इसलिए आए हैं कि यहां के जायकेदार कहलाने वाले पानी के हम प्यासे हैं? नहीं! दरअसल, इंसान होने का हमारा हक जताने के लिए हम यहां आए हैं.
बाबा साहेब ने जिस नई विचारधारा से पानी पिया वो दलितों पर उलट पड़ गई. चावदार तालाब से दलितों द्वारा पानी पिए जाने के बाद सवर्णों ने उनकी बस्ती में आकर हुडदंग मचाया. लोगों को मारा-पीटा गया. घरों को बाहर और अंदर से तोड़ा गया ताकि दोबारा कोई ऐसा न कर सके. सवर्णों ने आरोप लगाया कि अछूतों ने पानी पीकर तालाब को खराब कर दिया. अब इसे मानसिकता कहा जाए या कुछ और दलितों द्वारा पानी पिए जाने के बाद सवर्णों ने पूजा-पाठ करवाई. तालाब को गाय के दूध, घी, गोबर, मूत से शुद्ध किया गया. सवर्णों ने ऐसा इसीलिए किया ताकि वो दोबारा पानी पी सके.
तात्कालिक तौर पर महाड़ में ये आंबेडकर की हार ही थी. हालांकि उन्होंने हार नहीं मानी. इस छोटी सी शुरुआत के बाद प्रशासन जागरूक हुआ और अगस्त 1923 में बॉम्बे लेजिस्लेटिव काउंसिल (अंग्रेजों के नेतृत्व वाली समिति) ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें वो सभी जगहें जिसका निर्माण और देखभाल सरकार करती है उसका इस्तेमाल कोई भी कर सकता है. इसी बात को बाबा साहेब ने संविधान में उल्लेखित किया. आंबेडकर को अपनी लोकतांत्रिक विचारधारा की जीत के लिए संविधान बनने तक इंतजार करना पड़ा, जिसमें छुआछूत का निषेध किया गया.