अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार अधिनियम 1989 (Scheduled Caste and Scheduled Tribe (Prevention of Atrocities) Act, 1989) को भारत के संविधान के अनुच्छेद 17 के तहत ‘अस्पृश्यता के अंत’ की अवधारणा के तहत 1989 में अधिनियमित किया गया था. संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता के अंत को कानून का रूप मिलने व इसके बाद सिविल राइट्स एक्ट (Civil Rights Act) के अस्तित्व में आने के बावजूद अनुसूचित जाति (Scheduled Caste) व अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe) समुदाय के खिलाफ जाति आधारित अपराध, अत्याचार तथा उनका आर्थिक व सामाजिक शोषण नहीं रूक पाया, जिसके चलते भारत की संसद को 1989 में एक नया सख्त कानून अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार अधिनियम बनाना पड़ा. हालांकि अगर इस कानून को देखा जाए तो यह कानून देखने में बेहद मजबूत नजर आता है तथा इसमें समय-समय पर संशोधन करके इसको और भी मजबूत बनाया गया है, लेकिन इसके बावजूद भी इसमें कुछ इस तरह की तकनीकी खामियां या कमियां हैं, जिसका फायदा अक्सर अनुसूचित जाति व जनजाति पर अत्याचार करने वाले लोग उठा जाते हैं.
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अब सीधा मुद्दे पर आते हैं. अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार अधिनियम में कुछ कानूनी शब्दों की परिभाषा दी गई है, परंतु इसमें कहीं भी शब्द पब्लिक व्यू यानी सार्वजनिक दृश्यता व पब्लिक प्लेस यानी सार्वजनिक स्थान की परिभाषा नहीं दी गई है.
अनुसूचित जाति व जनजाति समुदाय के किसी सदस्य को अपमानित करने का सबसे आसान तरीका है कि उसे जातिसूचक शब्दों या जाति के आधार पर दी जाने वाली गालियों से उसे संबोधित किया जाए. आमतौर पर शरीर के विरुद्ध किए गए अपराध व्यक्ति को शारीरिक तौर पर नुकसान पहुंचाते हैं, परंतु जातिसूचक गालियां बकने जैसे अपराध दलित समुदाय (Dalit Community) के लोगों की आत्मा को घाव पहुंचाते हैं तथा उसे एहसास दिलाते हैं कि वह आखिर इस समुदाय में पैदा ही क्यों हुआ तथा उसके मन में हजारों सवाल होने लगते हैं कि आखिर उसके साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया जा रहा है?
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हम अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार अधिनियम 1989 की बात करें तो उसकी धारा 3(1)(r) व 3(1)(s) में कहा गया है कि यदि गैर अनुसूचित जाति समुदाय का कोई व्यक्ति यदि अनुसूचित जाति समुदाय के व्यक्ति को अपमानित करने की नियत से जातिसूचक गालियां देता है तो वह अपराध है, बशर्ते वह जातिसूचक गालियां सार्वजनिक दृश्यता (Public view) में व (Public Place) सार्वजनिक स्थान पर दी गई हों, यानी वह जगह सार्वजनिक स्थान होना चाहिए तथा वहां पर कुछ लोग इस घटना को देखने के लिए भी मौजूद होने चाहिए. अगर इस बात को दूसरे तरीके से कहें तो अगर किसी गैर अनुसूचित जाति समुदाय के व्यक्ति ने आपको किसी बंद कमरे में, या टेलीफोन पर या किसी गैर सार्वजनिक जगह या जनता की अनुपस्थिति में जातिसूचक गालियां दी हैं तो वह अनुसूचित जाति व जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के तहत अपराध नहीं है.
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अगर हम भारतीय अपराध कानून को पढ़ें तो भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) में साफ कहा गया है कि किसी अपराध को कारित होने के लिए सबसे पहले उस अपराध को करने की मंशा होने चाहिए, फिर अपराध करने की तैयारी तथा फिर अपराध करने का प्रयास होता है, लेकिन एससी/एसटी एक्ट (SC/ST Act) की धारा में 3(1)(r) भारतीय आपराधिक कानून की मूल अवधारणा को एक तरह से नहीं माना गया है. अगर अपराधी की नियत या मंशा दलित समाज (Dalit Community) के व्यक्ति को जातिसूचक गालियां देकर उसे अपमानित करने की हो, लेकिन उसकी गालियों को सुनने के लिए कोई और व्यक्ति या गवाह मौजूद ना हो या जगह सार्वजनिक ना हो तो एससी/एसटी एक्ट के तहत यह अपराध नहीं माना जाएगा, लेकिन अगर भारतीय आपराधिक कानून की मूल अवधारणा की बात करें तो अगर जातिसूचक गालियां जानबूझकर दलित व्यक्ति को अपमानित करने की नियत या मंशा से दी गई है तो वह निश्चित रूप से एक अपराध है.
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रोजाना अदालतों में देखा जा रहा है अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार अधिनियम के तहत दर्ज अपराधों में अपराधी इस कानून की इसी कमी का फायदा उठाकर जमानत प्राप्त कर लेते हैं. तब बाद में इस तकनीकी खामी के चलते बरी भी हो जाते हैं जोकि दलित समुदाय के लिए न्याय नहीं पूर्णता अन्याय है.
इसलिए अब समय आ गया है कि एससी/एसटी एक्ट में सार्वजनिक दृश्यता या पब्लिक व्यू को फिर से परिभाषित किया जाए तथा एससी/एसटी एक्ट की धारा 3(1)(r) व 3(1)(s) से पब्लिक व्यू यानी सार्वजनिक दृश्यता व पब्लिक प्लेस यानी सार्वजनिक स्थान शब्द को हटाया जाए तथा भारतीय आपराधिक कानून के तहत सार्वजनिक जगह की जगह अपराधी की मानसिकता या मंशा देखी जानी चाहिए.
(रजत कलसन जाने-माने वकील हैं एवं दलितों के कानूनी अधिकारों की लड़ाई लड़ते हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं.)
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