Dr. BR Ambedkar on Women Rights : डॉ. बीआर आंबेडकर महिलाओं के हितों व उनके अधिकारों के प्रति एक ऐसे संवेदनशील योद्धा एवं पुरोधा थे, जिन्होंने स्त्री से जुड़े लगभग सभी क्षेत्रों- शिक्षा, विवाह, पुनर्विवाह, परिवार नियोजन, संपति आदि को अपने चिंतन का हिस्सा बनाकर नारी मुक्ति का आह्वान किया. प्रसूति लाभ के मुद्दे पर वर्ष 1928 में डॉ. आंबेडकर (Dr. Ambedkar) ने आवाज़ बुलंद कर अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया. उनके अथक प्रयास के परिणामस्वरुप ही सरकार को प्रसव प्रसुविधा अधिनियम, 1961 (Maternity Benefit Act, 1961 ) पारित करना पड़ा, जिसने रोजगार के लगभग सभी क्षेत्रों में महिलाओं के शोषण का अंत कर उनके सशक्तिकरण का मार्ग प्रशस्त किया. इसी तरह कट्टरपंथियों के कड़े विरोध के कारण आंबेडकर (Ambedkar) द्वारा पोषित संपत्ति के अधिकार में महिलाओं की हिस्सेदारी (Women’s share in property rights) को मान्यता चाहें उस समय न मिली, किंतु 2005 में संशोधित संपत्ति विधेयक के माध्यम से इसे वास्तविकता में बदल दिया गया.
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इसके अतिरिक्त शिक्षा का अधिकार, 2009 (Right to Education, 2009) के तहत् 6-14 वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा को संविधान के भाग-तीन का हिस्सा (Free and Compulsory Education in Part III of Constitution) बनाकर सरकार स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाती नहीं थकती है, जबकि इसका बीजारोपण बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर (Dr. Bhimrao Ambedkar) ने ही ही किया था.
अतः आंबेडकर ने महिलाओं से जुड़ी समस्याओं के प्रति जो भी समाधान रखे, उन्हें एक-एक कर भारत सरकार अपनाकर अपनी उपलब्धियों में वृद्धि तो करती जा रही है किंतु उनमें आंबेडकर नदारद हैं. वास्तवमें नारी मुक्ति का जो वर्तमान में महल खड़ा दिखाई देता है और भविष्य में जो भी महल बनेंगे, उसकी नींव तो आंबेडकर ही है.
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किंतु विडंबना यह है कि भारतीय नारीवादी आंदोलन (Indian Feminist Movement) आंबेडकर की अनदेखी कर यूरोप के नारिवादियों तथा मार्क्सवाद में आधार देखता है. आंबेडकर ने जिस समतामूलक समाज की कल्पना की थी स्वतंत्रता के 6 दशक बाद भी उसकी छवि धुंधली सी प्रतीत होती है. दिन-प्रतिदिन महिलाओं के बलात्कार, यौन उत्पीड़न, घरेलू हिंसा, निर्धनता, निरक्षरता जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है. निर्भया मुद्दे को शायद ही कोई महिला अपने जेहन से निकाल पाए.
मुख्यतः एनआईआर विवाह में आज महिला शोषण के नए रूप देखने को मिलते हैं. अतः सामाजिक सुधार के अधूरे रह गये आंबेडकर के सपने को उनके विचारों का सही सही एवं प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन कर पूरा किया जा सकता है तभी नारी को समाज में वाजिब हिस्सा मिलेगा, जिसकी वह यथार्थ में हक़दार है. ऐसे में में रजनी तिलक की पक्तियां प्रासंगिक लगती हैं ‘इकाई नहीं हूं मैं’. Dr. BR Ambedkar on Women Rights