दलित आंदोलन या विमर्श के प्रमुख नायक भारत रत्न बाबा साहेब (Baba Saheb) डॉ. भीमराव आंबेडकर (Dr. BR Ambedkar) हुए, जिन्होंने पहली बार गहन अध्ययन कर विस्तृत फलक पर दलित आंदोलन को दिशा प्रदान की. उन्होंने अब तक के क्रांतिकारियों बुद्ध, फुले आदि से ऊर्जा ग्रहण कर आंदोलन को गहरे सामाजिक सरोकारों से जोड़ा.
बाबा साहब ने दलित आंदोलन (Dalit Movement) की योजनागत शुरुआत 20 मार्च 1927 को महाड़ सत्याग्रह (Mahad Satyagraha) से की. महाड़ नगरपालिका के अन्तर्गत आने वाले सार्वजनिक तालाब से सरकार की अनुमति के बाद भी ‘अछूतों’ को पानी लेने की मनाही थी. बाबा साहब के नेतृत्व में ढाई हजार अछूतों ने तालाब से पानी पीकर आंदोलन की क्रांतिकारी शुरुआत की. इसके बाद 20 दिसम्बर 1927 को बाबा साहब के नेतृत्त्व में ही मनुस्मृति को जलाकर ब्राह्मणवादी व्यवस्था और सत्ता को चुनौती दी.
डॉ. आंबेडकर ने इस घटना की फ्रांस की राज्य क्रांति से तुलना करते हुए यहा था कि यह घटना दलित क्रांति के इतिहास में वही स्थान रखती हैं जो फ्रांस और यूरोप में जन-मुक्ति के इतिहास में बास्तीय के पतन का था. सीधी कार्रवाई की अगली कड़ी में बाबा साहब के नेतृत्व में ही 5000 अछूतों के साथ 2 मार्च 1930 को (इसी दिन गांधी ने अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ किया था) नासिक के कालाराम मन्दिर में प्रवेश की घटना आती है. यहां भी महार की तरह आंबेडकर सहित सैंकड़ों दलितों के सिर फूटे, लेकिन एक साल तक सभी के लिए मंदिर के कपाट बंद कर दिए.
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यहां बाबा साहब का आशय कोई धार्मिक आंदोलन या ईश्वर भक्ति को लेकर स्थाई नहीं था, बल्कि इसके माध्यम से वे दलितों में अपने अधिकारों के प्रति ललक पैदा कर रहे थे. बाबा साहब जैसे विद्वान पत्थर की मूर्ति की पूजा के लिए कब श्रम की बर्बादी करने वाले थे. आंदोलन की अगली कड़ी में आता हैं बाबा साहब द्वारा गोलमेज सम्मेलन (Round Table Conference) में दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग, जिसे ब्रिटिश सरकार ने स्वीकार भी कर लिया था. इसके खिलाफ गांधी ने अनशन किया, जिसकी वजह से बाबा साहब को 24 सितम्बर 1932 को गांधी के साथ समझौता करना पड़ा, जिसे पूना पैक्ट (Poona Pact) के नाम से जाना गया.
इन घटनाओं से तथा बाबा साहब के कुशल व योजनागत नेतृत्व से दलित आंदोलन अब दिशागत आगे बढ़ता गया. इसके बाद 1935 में बाबा साहब द्वारा हिन्दू धर्म को छोड़ने की घोषणा ने आंदोलन की विचारधारा को स्पष्ट कर दिया. आगे डॉ. आंबेडकर द्वारा संविधान निर्माण, संविधान में दलित, आदिवासी आदि समाजों के लिए आरक्षण की व्यवस्था, 1955 में “रिपब्लिक पार्टी ऑफ इण्डिया” की स्थापना और फिर 1955 में ही बौद्ध धर्म (Buddhism) ग्रहण करने की घटनाओं ने दलित आंदोलन को दलित समाज के आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व एकतरफ कलम के माध्यम से व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन खड़ा किया तो बाबा साहब ने अपने अथक प्रयासों व गहन अध्ययन से पहली बार दलित समाज को उनका अपना इतिहास बताया और भविष्य के सपने संजोए.
उनके पहले वही कहावत चरितार्थ हो रही थी ‘जब रोम जल रहा था तो नीरो बंसी बजा रहा था’. ‘इतिहास और वर्तमान’ दोनों पर नजर डालें तो यह उक्ति न केवल रोम बल्कि हर उस जगह सही ठहरायी जा सकती है, जहां-जहां इंसान पर इंसान का अत्याचार हुआ. जब ‘हिरोशिमा-नागासाकी’ में मानवता कराही, जब आतंकवाद मिटाने के बहाने अमेरिकी जंगी जहाजों ने मानवता को मिटाने व तेल के कुंओं पर कब्जा करने के लिए उड़ान भरी या जब भारत में जातिवाद को बचाए रखने के लिए कभी दलित बस्तियों को जला दिया गया तो कभी दलितों के हाथ-पैर काट दिए गए, तब से निरन्तर ‘नीरो बंसी बजा रहा हैं और रोम जल रहा है.’
इसी जातिवाद, वर्णवाद के खिलाफ साहित्य या अन्य किसी भी तरह के लेखन से किया जाने वाला आंदोलन दलित विमर्श है, जिसकी विचारधारा आंबेडकरवादी हैं तो सिद्धांत डॉ. आंबेडकर के जीवन मूल्य-समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व. दलित विमर्श वह लेखन है जो वर्ण व्यवस्था के विरोध में और उसके विपरीत मूल्यों के लिए संघर्षरत मनुष्य से प्रतिबद्ध है. दलित विमर्श समाज के उस तबके की पीड़ा तथा स्थिति को उजागर करता है, जिसे सदियों से दबा-कुचला मानकर उनके मूलभूत अधिकारों और बुनियादी हकों से भी दूर रखा गया. भारतीय समाज में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था, जातिवाद तथा किसी भी तरह से प्रचलित भेदभाव को पूरी तरह से नकारने वाला यह विमर्श समाज तथा लेखन के क्षेत्र में मनुष्यता की बात करते हुए मनुष्य की मुक्ति की मांग करता है.