शिक्षा का स्थान बाबा साहब डॉ. बी आर आंबेडकर के जीवन और उनके विचारों में सबसे अधिक महत्व रखता है, लेकिन बाबा साहब जिंदगी पर नजर डालें तो उनके लिए ज्ञान का स्रोत सिर्फ स्कूली और कॉलेज की शिक्षा नहीं थी, बल्कि वह सबकुछ जान लेना चाहते थे.
सबकुछ जान लेने की इसी जुनून ने उन्हें एक ऐसा पुस्तक प्रेमी बना दिया, जिसकी मिसाल कम ही मिलती है. उनके जीवन पर नजर डालें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किताबों से उनका प्रेम समय के साथ बढ़ता ही गया.
उनके अध्ययन का क्षेत्र बड़ा व्यापक था. वह किसी एक विषय के ज्ञाता बनकर बैठ जाने वाले व्यक्ति नहीं थे. कानून, धर्म, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र जैसे कई विषयों की किताबें वह पढ़ा करते थे.
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बाबा साहब को सिर्फ उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपना शानदार करियर ही नहीं बनाना था, बल्कि उन्हें तो करोड़ों दलित, उपेक्षित और शोषित लोगों की मुक्ति का राह खोजनी थी. यह काम सिर्फ पाठ्यक्रम की पुस्तकों से नहीं हो सकता था. इसलिए स्कूल और कॉलेज की पढ़ाई पूरे मन से करने के बाद भी बाबा साहब के मन में पाठ्यक्रम की बाहर की किताबों के प्रति लगाव बढ़ता रहा. यह किताबें ही थीं जो उन्हें सवाल करना सीखा रही थीं और आने वाले दिनों में संघर्ष के लिए मजबूत वैचारिक आधार प्रदान कर रही थीं.
शुरुआती स्कूली शिक्षा के दौरान बालक भीम का ध्यान पढ़ने लिखने की ओर अधिक नहीं था. जब भीम के पिता की सतारा में नौकरी का समय पूरा हो गया तो परिवार मुंबई आ गया. परिवार लोअर परेल की डबक चाल में रहने लगा. यहां बाबा साहब का दाखिला ‘मराठा माध्यमिक स्कूल’ में करा दिया गया.
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भीम के पिता रामजी उनकी पढ़ाई के लिए बहुत चिंतित रहते थे. धनंजय कीर ‘डॉ बाबासाहब आंबेडकर जीवन चरित’ में लिखते हैं, ‘वह (भीम) सूबेदार को अपने जीवन की एकमात्र आशा की किरण लगता था. वह उनकी आशा का आश्रय और अभिमान का तारा था. भीम को परीक्षा में प्राप्त साधारण सफलता से उनके मन को संतोष नहीं होता था. रात दिन उन्हें उसके उत्कर्ष की छटपटाहट लगी रहती थी, उस झटपटाहट का अर्थ भीम बिल्कुल नहीं समझता था.’ (पृष्ठ 20)
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‘उस सब छटपटाहट का असर भीम के जीवन पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़ता था. उसके मन में पाठ्यक्रम के बाहर की किताबें पढ़ने इच्छा हुई. किताबों के प्रति उसके मन में दिलचस्पी बढ़ने लगी. उसके लिए वह जिद करने लगा. महत्वपूर्ण ग्रंथ देखने पर उसे ऐसा लगता था कि वह अपने संग्रह में हो. अध्ययन की ओर ध्यान न देकर बेटा अतिरिक्त किताबें पढ़ें… यह बात रामजी को बिल्कुल पसंद नहीं थी तथापि बच्चे के हठ करने पर जेब में पैसा हो या न हो…वे किताब लाने के लिए निकल पड़ते थे.’ (पृष्ठ 20)
कीर बताते हैं, भीम के पिता रामजी को कई बार भीम की किताब खरदीने के लिए अपनी बेटी से उधार लेना पड़ता, जिसकी शादी हो चुकी थी. हालांकि भीम को अब किताबों की लत लग चुकी थी. कीर लिखते हैं, ‘पिताजी द्वारा लाए ग्रंथ पढ़ते-पढ़ते सिरहाने रखकर भीम सो जाता था, मानों भीम की ऐसी आदत ही बन गई थी. ‘ (पृष्ठ 21)
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आगे चलकर जब बाबा साहब पढ़ाई करने के लिए अमेरिका गए तो वहां भी किताबों के प्रति उनकी दीवानगी जारी रही, बल्कि कुछ बढ़ ही गई. धनंजय कीर द्वारा लिखी बाबा साहब की जीवनी के मुताबिक, ‘ग्रंथ खरीदने की अंबेडकर की भूख कम होने के बदले बढ़ती ही जा रही थी. समय मिलने पर वे पुराने ग्रंथों की दुकानों में भटकते रहते थे. पेट काटकर ग्रंथ खरीदने की धुन से लगभग दो हजार पुराने ग्रंथों का संग्रह उनके पास हो गया.’
बाबा साहब का जीवन हमें यह संदेश देता है कि जीवन के लिए ज्ञान का महत्व सबसे अधिक है और किताबें ज्ञान का सबसे बड़ा स्रोत. किताबें मानव की सच्ची दोस्त हैं यही शिक्षा हमें बाबा साहब के जीवन से मिलती है.
लेखक बलविंदर कौर नन्दनी दलित साहित्य पर शोधकर्ता (दिल्ली विश्वविद्यालय) व स्वतंत्र पत्रकार हैं…
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