आधुनिक और स्वतंत्रत भारत में दलितों और पिछड़े वर्ग के लोगों में आत्म सम्मान की भावना पैदा करने, महिलाओं को एक समान धारा में लाने में ज्योतिबा फुले, डॉ. भीमराव आंबेडकर, नारायण गुरु और ईवी. रामासामी पेरियार की अहम भूमिका मनाई है. जब बात दलितों के आत्म सम्मान को बढ़ावा देने की आती है तो सूची में पहला नाम आंबेडकर का होता है. इस दौरान हम महात्मा अय्यंकालि (Mahatma Ayyankali) को नकार जाते हैं.
आजादी से पूर्व भारत में रहने वाली दलित महिलाओं (Dalit Women) की अस्मिता की रक्षा के लिए अय्यंकालि के योगदान को भूल पाना नामुमकिन है. ये भारत का वो दौर था जब दलित महिलाओं को अपने ही स्तन बढ़ने का अधिकार प्राप्त नहीं था. दलित महिलाओं को ऊंची जाति की उपस्थिति में पहले उन्हें अपने स्तन के कपड़े हटा लेने होते थे.
सिर्फ कंठहार पहनने की थी इजाजत
ऊंची जाति के सामने महिलाओं को सिर्फ कंठहार पहनने की इजाजत थी. गुलामी के इस परिधान से दलित महिलाओं को मुक्ति दिलाने के लिए अय्यंकालि ने दक्षिणी त्रावणकोर से आंदोलन की शुरुआत की.
ऊंची जाति को पसंद नहीं आया विद्रोह
एक सभा के दौरान अय्यंकालि ने सभी दलित स्त्रियों ने कहा कि वो गुलामी और जाति का प्रतीक आभूषणों को छोड़कर सामान्य ब्लाउज पहनें. ताकि उनके स्तनों पर किसी कि भी नजर न पड़े और ऊंची जाति की महिलाओं की तरह उन्हें भी सम्मान की निगाहों से देखा जाए. अय्यंकालि के आंदोलन में शामिल सभी महिलाओं ने ऐसा ही किया.
हालांकि ऊंची जाति की महिलाओं को यह पसंद नहीं आया. दलित महिलाओं को सामान्य ब्लाउज पहनने से रोकने के लिए परिणति दंगे हुए है. लेकिन इस बार दलित महिलाएं अय्यंकालि के कारण झुकी नहीं. उन्होंने ठान लिया कि वो अब सामान्य ब्लाउज पहनकर ही रहेंगी.
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समझौते के लिए तैयार हुए सवर्ण
अंततः सवर्णों को समझौते के लिए तैयार होना पड़ा. अय्यंकालि और नायर सुधारवादी नेता परमेश्वरन पिल्लई की उपस्थिति में सैंकड़ों दलित महिलाओं ने गुलामी के प्रतीक ग्रेनाइट के कंठहारों को उतार फेंका. समझौते के अनुरूप दलितों महिलाओं को भी सामान्य ब्लाउज पहनने का हक मिला. ऐसा कहा जाता है कि इस आंदोलन के बाद देश में दोबारा किसी भी दलित महिला को बिना ब्लाउज के नहीं रहना पड़ा. सवर्ण जाति की तरह की उनका जीवन सामान्य हो गया.
एक नजर में…